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टीकमगढ़ का वैभवशाली समृद्ध इतिहास व पर्यटन स्थल Tikamgarh | टीकमगढ़

टीकमगढ़ का वैभवशाली समृद्ध इतिहास व पर्यटन स्थल Tikamgarh | टीकमगढ़

टीकमगढ़ का वैभवशाली इतिहास व धरोहर

Tikamgarh | टीकमगढ़

Tikamgarh जिले में बुंदेला राजाओ की जागीरें और रियासतें रही है . टीकमगढ़ का नाम भगवान कृष्ण के एक नाम ” टीकम ” के नाम पर पड़ा, टीकमगढ़ जिला मौर्यों, सुंगों और शाही गुप्तों द्वारा शासित विशाल साम्राज्यों का हिस्सा था। जब यह नौवीं शताब्दी ई. की पहली तिमाही में था, तब मन्नुका ने इस क्षेत्र में चंदेल वंश के एक नए राजवंश की स्थापना की और टीकमगढ़ के साथ-साथ खजुराहो और महोबा ने व्यापक चंदेल साम्राज्य का हिस्सा बनाया। गढ़ कुंडार के आसपास विशेष रूप से इस क्षेत्र में खंगारों ने अपना कब्जा किया। इस क्षेत्र में बुंदेलों की बढ़ती शक्ति के परिणाम स्वरुप खंगारों का पतन हुआ।

टीकमगढ़ शहर आज भी एक बड़े गांव की तरह है शहरी सुविधायें कम ही है लेकिन धीरे धीरे सुविधाएं भी बढ़ रही है पुरे टीकमगढ़ ज़िले में मंदिरों की तादाद बहुत ज्यादा हैछोटे-बड़े मंदिर जगह-जगह है . पुरे जिले में आपको बड़े-बड़े तालाब और किले आसानी से देखने को मिल जायेंगे चूँकि यह पथरीला क्षेत्र होने की वजह से यहाँ पानी की कमी रहती है।

जिसे पूरा करने के लिए कई राजाओं ने बड़े-बड़े तालाब खुदवाये थे। इन तालाबों की वजह से न केवल भूमिगत जलस्तर बढ़ा बल्कि लोगो के लिए मत्स्य पालन के रूप में एक रोजगार भी मिला। इन तालाबो की प्राकतिक सुंदरता भी देखते ही बनती है। मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा तालाब टीकमगढ़ जिले में ही है। हाल ही में टीकमगढ़ नगर पालिका द्वारा शहर में स्थित महेंद्र सागर तालाब के किनारे ‘ शान- ए- टीकमगढ़ पार्क ‘ बनवाया है जो बड़ा ही सुन्दर है।इस पार्क में जिले की लगभग सभी महान शख्शियतों की मूर्तियां लगायी गयी है।

कुंडेश्‍वर मंदिर टीकमगढ़ | Kundeshwar Mandir Tikamgarh


जिस शिवलिंग को बड़े-बड़े पहलवान हिला नही पा रहे थे उसे भोलेनाथ के भक्त महाराजा प्रतापसिंह ने केवल अंजुली बनाकर स्थापित करा दिया। उस दिन से नगर के महेंद्र सागर तालाब पर विराजे भोलेनाथ के नाम के साथ उनके भक्त प्रतापसिंह का नाम जुड़कर प्रतापेश्वर हो गया।

महेंद्र सागर तालाब किनारे विराजे भोलेनाथ का मंदिर नगर के लोगों की विशेष आस्था का केन्द्र है।मंदिर में विशाल शिवलिंग के साथ उनके नंदी वाहन,गणेश और माता पार्वती विराजी है। जबकि मंदिर परिसर में ही भगवान राम के दूत आदमकद रूप में हनुमान जी के दर्शन लोगों के कष्टों को हरते है।

मंदिर का कोई ट्रस्ट न होने के बावजूद मंदिर के पुजारी और वहां आने वाले श्रद्वालुओं के द्वारा मंदिर के आसपास लगातार विकास कराया जा रहा है।

इतिहासकार शिवलिंग की स्थापना को लेकर भी कई किस्से सुनाते है।इतिहासवेत्ता सीताराम सिरवैया कहते है कि वर्ष 1908 में महेंद्र सागर तालाब और तालकोठी के निर्माण के साथ ही शिव मंदिर का निर्माण महाराज प्रताप सिंह ने करवाया था। महाराजा भगवान भोलेनाथ के अनन्य भक्त थे।कुण्डेश्वर में शिवलिंग की स्थापना कराने के बाद महाराजा रोजाना गंगाजल से उनका अभिषेक करने जाते थे।

महेंद्र सागर तालाब और तालकोठी के निर्माण के समय अपने आराध्य भोलेनाथ के मंदिर का निर्माण कराया। जिसके लिए वह नेपाल से स्फटिक शिवलिंग लाए थे। इस दौरान उनके मन में विचार आया कि कुण्डेश्वर के शिवलिंग की स्थापना यहां कराई जाए।
जिसके लिए उन्होंने शिवलिंग की थाह लेने के लिए खुदाई कराई। किवदंतियों के अनुसार कुण्डेश्वर शिवलिंग की थाह न मिलने पर उन्हें भोलेनाथ के द्वारा स्वप्न में कहा गया कि वह नेपाल से लाए शिवलिंग को ही वहां विराजमान कराएं। जिससे उनका नाम भी भोलेनाथ के साथ जोड़कर देखा

कुंडेश्‍वर मंदिर

टीकमगढ़ से 5 किलोमीटर दक्षिण में जमड़ार नदी के किनारे यह गाँव बसा हुआ है। गांव कुंडदेव महादेव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है कहा जाता हैकि मंदिर के शिवलिंग की उत्पत्ति एक कुंड से हुई थी। इसके दक्षिण में सुंदर पिकनिक स्थल है
जिसे ‘बैरीघर’ के नाम से जाना जाता है और ‘उषा वाटर फॉल’ के नाम से जाना जाने वाला एक सुंदर झरना भी है। इस गांव में ऐक्रोलॉजिकल म्यूजियम और विनोबा संस्थान है। महाराजा बिरसिंह देव ने कुंडेश्वर साहित्य संस्थान की स्थापना की,
जो कुंडेश्वर में अपने प्रवास के दौरान पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी और यसपाल जैन द्वारा संचालित किया गया था।

कुण्डेश्वर स्थित देवाधिदेव महादेव आज भी शाश्वत और सत्य है, इसका जीता-जागता प्रमाण स्वयं प्रतिवर्ष चावल के बराबर बढऩे वाला शिवलिंग है।समूचे क्षेत्र में इसे तेरहवें ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाता है।
प्राचीन काल से इस मंदिर का विशेष महात्व है। कहते है आज भी वाणासुर की पुत्री ऊषा यहां पर पूजा करने के लिए आती है।
शिव की मूर्ति के मिलने का समाचार सुनकर वल्लभाचार्य जी यहाँ आए और तैलंग ब्राह्मणों द्वारा मूर्ति का संस्कार कराया और वहीं प्रतिष्ठित किया।
मूति एक कुंड से प्राप्त हुई थी, इसी कारण से यह ‘कुंडेश्वर’ कहा जाता है।
‘शिवरात्रि’, ‘मकर संक्रांति’ और ‘बसंत पंचमी’ के अवसर पर यहाँ भारी मेला लगता है।
यहां पर आने वाले श्रद्धालुओं द्वारा सच्चे मन से मांगी गई हर कामना पूरी होती है

अछरू माता मंदिर टीकमगढ़ | Achru Mata Mandir Tikamgarh

अछरू माता मंदिर का इतिहास यादव समाज के गौसेवक अछरू से जुड़ा हुआ है, जिन्हें माता रानी ने अपने दर्शन ही नहीं दिए, बल्कि उन्हें आज भी अछरू माता के नाम से जाना जाता है। गांव के बुजुर्गों का कहना है कि लगभग 500 वर्ष पुरानी बात है अछरू नाम का एक यादव किसान था और उसकी कुछ भैंस गुम हो गईं थीं, तो उन्हें ढूंढते-ढूंढ़ते लगभग एक महीना हो गया वो वो थक हार के एक जगह बैठ गया। प्यास के मारे उनके प्राण निकले जा रहे थे तो देवी मां ने उन्हें एक कुंड में से निकल कर दर्शन दिए औऱ


कहा कि इस कुंड में से पानी पी लो।

इसके साथ ही माता ने किसान को उसकी भैंसों का पता भी बता दिया। अछरू नाम के किसान ने कुंड में से पानी पिया और कुंड की गहराई पता करने के लिए उन्होंने अपनी लाठी कुंड में डाली तो वो लाठी नीचे तक चली गई, तो किसान अचम्भित रह गया फिर वो माता के बताए स्थान पर गया तो उन्हें सभी भैंसे मिल गयीं। उनकी लाठी भी उसी तालाब में मिली
यह देख अछरू यादव नाम का किसान अचम्भित रह गया और उन्होंने यह सब बात सभी तो बताई। धीरे धीरे लोग इस स्थान पर आने लगे और लोगो की मनोकामनाएं पूर्ण होती चली गईं। देश के हर राज्य से लोग आने लगे और भक्तों ने उस स्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण करवा दिया और उस समय से आज तक मंदिर की पूरी देख रेख और पूजा पाठ यादव जाती के बंधु ही करते हैं।

अछरू माता

झांसी की ओर जाने पर टीकमगढ़ से महज 59 किमी दूर यह प्रसिद्ध मंदिर है। बुंदेलखंड की देवी प्रतिमाओं में अछरूमाता के दर्शनों का विशेष पुण्य लाभ मिलता है।
ऐसी मान्यता है कि यहां आने वाले भक्तों की हर मनोकामना पूरी होती है।। एक पहाड़ी पर बसे इस गांव में माता अछरू का चर्चित मंदिर है यहां मूर्ति नहीं है, एक कुंड के आकार का गड्ढा है। जो सदैव जल से भरा रहता है।
यहां चैत्र-नवरात्र में प्राचीनकाल से मेला लगता आ रहा है।

नवरात्रि के आरंभ होते ही मेला लग जाता है
और हजारों की संख्या में श्रद्धालु यहां दर्शनों के लिए आते हैं। माता के चमत्कारों की कहानियां क्षेत्र के हजारों बुर्जुर्गों की जुबान पर आज भी सुनने के लिए मिलती हैं।
ओरछा स्टेट की यह धार्मिक भूमि अब निवाड़ी जिले का हिस्सा हो गई है। प्रथ्वीपुर के समीप स्थित मां अछरूमाता का यह मंदिर भक्तों की आस्था का केंद्र वर्षों से रहा है।
एक समय यहां माता की मढ़यिा हुआ करती थी। समय के साथ हुए बदलाव के चलते अब यहां विशाल मंदिर और धर्मशालाएं बन चुकी हैं।
यहां नवरात्रि पर लगने वाले मेले के लिए दुकानों का लगना शुरू हो गया है।

अहार जी मंदिर टीकमगढ़ | Aahar ji Mandir Tikamgarh

 


आज से लगभग 133 वर्ष पूर्व सन 1884 (वि.सं. 1941) तक अहार जी क्षेत्र एक विशाल रेत के टीले में तब्दील था। टीकमगढ़ जिले के नारायणपुर ग्राम के एक जैन व्यापारी श्री सबदल बजाज जी का घोड़ा खो गया था,
जिसे खोजते हुये बे उस टीले पर पहुंचे। टीले पर खड़े होकर घो‌ड़े के लिये चारों ओर नजर दौड़ाई, तभी बहां उन्होने कुछ बच्चों को खेलते हुये देखा। उन से घोड़े के बारे में पूंछा। वहां टीले पर बच्चे रेत का खेल खेल रहे थे।
बहां पर कुछ छेद (छिद्र)बने हुये थे, जिनमें बच्चे आवाज लगाते और उन्हें बदले में प्रतिध्वनि सुनाई देती। श्री बजाज जी ने भी ऐसा करके देखा और उन्हें तुरंत समझ में आ गया कि इसके नीचे कुछ विशेष रचना मंदिर या मठ आदि हो सकता है।

दोनों महानुभावों ने मजदूरों को लेकर खुदाई प्रारम्भ कराईतो कुछ ही दूरी पर मंदिर का दरवाजा मिल गया। भीतर जाकर देखा तो भगवान शांतिनाथ एवं भगवान श्री कुंथुनाथ जी की दो खड़्गाीसन खण्डित प्रतिमायें खड़ी थीं।
चन्दा एकत्र करसभी के सहयोग से आगे की योजना बनायी। पुन: खुदाई प्रारम्भ हुई और एक विशाल मंदिर जो कि रेत के टीले में दबा हुआ था, धीरे धीरे प्रकट हो गया। क्षेत्र के दक्षिण दिशा में स्थित पर्वत पर सैकड़ों मूर्तियां खण्डित अवस्था में पड़ी हुई थींजिन्हें एकत्रित करके संग्रहालय में लाया गया।अहार क्षेत्र के इस संग्रहालय में ग्यारहवीं शताब्दी से पंद्रहवीं शताब्दी तक की सैकड़ों मूर्तियां विद्यमान हैं

अहार जी 

– बल्देवगढ़ तहसील का यह गांव जिला मुख्यालय से 25 किमी. दूर टीकमगढ़-छतरपुर रोड पर स्थित है।
यह गांव जैन तीर्थ का प्रमुख केन्द्र कहा जाता है। अनेक प्राचीन जैन मंदिर यहां बने हैं, जिनमें शांतिनाथ मंदिर प्रमुख है
। इस मंदिर में शांतिनाथ की 20 फीट की प्रतिमा स्थापित है। एक बांध के साथ चंदेल काल का जलकुंड यहां देखा जा सकता है।
इसके अलावा श्री वर्द्धमान मंदिर, श्री भेरू मंदिर, श्री चन्द्रप्रभु मंदिर, श्री पार्श्‍वनाथ मंदिर, श्री महावीर मंदिर,
बाहुबली मंदिर और पंच पहाड़ी मंदिर यहां के अन्य लोकप्रिय मंदिर हैं। बाहुबली मंदिर में भगवान बाहुबली की 15 फीट ऊंची मूर्ति स्थापित है।
अहार जी क्षेत्र पर त्रैकालिक चौबीसी (भूत, वर्तमान एवं भविष्य काल) एवं विद्यमान बीस तीर्थंकर की स्थापना हेतु
शांतिनाथ मंदिर के चारों ओर विशाल बेदियों का निर्माण किया गया है। इसी क्रम में भगवान श्री बाहुबली स्वामी के मंदिर का निर्माण
, पंचपहाड़ी पर्वत पर चरण पादुकाओं सहित मंदिरों आदि के निर्माण कार्य कराये गये हैं।
अहार जी क्षेत्र के समीप ही लगभग 4 किलोमीटर लम्बा ‘मदन सागर’ नामक तालाब है।
यहां से प्राप्त अनेक मूर्तियों पर इस क्षेत्र का नाम ‘मदनेश सागर पुरे’ अंकित है। क्षेत्र के समीप जो ग्राम है
उसका नाम ढ़ड़कना है और तालाब के बांध पर जो ग्राम है उसका नाम ‘अहार’ है।
यहाँ पर खंडित मूर्तियां तथा खण्डहर अभी तक विद्यमान हैं।
मंदिरों के कलात्मक सभी पत्थर ओरछा (टीकमगढ़) राज्य के राजा ने सुधासागर तालाब के निर्माण में पहाड़ पर से ढुलवाकर लगवा दिये हैं।

बगाज माता मंदिर टीकमगढ़ | Bagaj Mata Mandir Tikamgarh

 


टीकमगढ़ जिला मुख्यालय से बुडेरा मार्ग पर वकपुरा नामक एक गांव स्थित है
यहां की जीवन दायिनी माता को बगाज माता के रूप में जाना जाता है।
ग्राम पंचायत वकपुरा की बगातमाता के दर्शनों के लिए नवदुर्गा समेत अन्य अवसरों पर हजारों भक्तगण मंदिर जाते हैं।
। इसी गांव के पास हरी भरी पहाडि़यों के बीच विद्या की देवी सरस्वती जी का मंदिर है। जिसे बगाज माता के नाम से जाना जाता है।
यह करीब 1100 वर्ष प्राचीन है। देवी मंदिर गांव से करीब 2 कि0मी0 दूर पहाडि़यों के बीच है। माना जाता है
कि आज से करीब 500 वर्ष पूर्व वकपुरा गांव के लोगों ने इस पवित्र स्थल की पहचान कर यहां आना जाना शुरु किया। यहां की मान्यताओं के अनुसार बगाज माता उन सभी भक्तों की रक्षा करती है, जिनको किसी जहरीले जानवर या कीडा ने काटा हो। सांप आदि जहरीले कीड़े के काटने पर माता के दरवार में अर्जी लगाने वाले भक्तो को माता रोग मुक्त कर द्वती है। इस आस्था हजारो लोग यहां आते है।

 पपौरा जी मंदिर टीकमगढ़ | Paporaji Jain Mandir Tikamgarh

 


पपौरा जी आठ सौ साल से अधिक पुराने हैं। साइट के दो बेसमेंट हैं; उनमें से एक में तीन मूर्तियाँ हैं। भगवान आदिनाथ की मूर्ति काले पत्थर की चमक से बनी है और दो फीट और ऊंचाई में आठ इंच है। अंदर की मूर्तियां भी उसी रंग और पत्थर में हैं।

तीन में से दो आदिनाथ मूर्तियों को वी.एस. 1202 (1145 ई।) उन पर शिलालेखों के अनुसार और इस क्षत्र में सबसे पुराने हैं। एक शिलालेख से पता चलता है कि यह स्थल तब तीर्थ के रूप में उभरा था।
मोतीलाल वर्णी (गणेश वर्णी के एक सहयोगी) ने एक धार्मिक स्कूल की स्थापना की थी
[4] जिसने दरबारी लाल कोठिया जैसे कई प्रतिष्ठित विद्वानों का निर्माण किया है। उन्होंने हस्तलिखित पांडुलिपियों का अपना संग्रह विद्यालय को दान कर दिया था।
सबसे पुराने मंदिरों को प्राचीन समुच्चय कहा जाता है। इसमें दो भूमिगत कक्षों जो 12 वीं सदी के है भी शामिल है।
1860 में 24 मंदिरों के एक अद्वितीय क्लस्टर का निर्माण किया गया था। उसी समय रथ के आकार के मंदिर का भी निर्माण किया गया था।है के रूप में भव्य प्रवेश द्वार का निर्माण किया गया था.

पपौरा जी

टीकमगढ़ से ५ किलोमीटर दूर सागर टीकमगढ़ मार्ग पर पपौरा जी जैन तीर्थ है ,जो कि बहुत प्राचीन है
और यहाँ १०८ जैन मंदिर हैं जो कि सभी प्रकार के आकार मैं बने हुए जैसे रथ आकार और कमल आकार यहाँ कई सुन्दर भोंयरे है ।
यहां रथ आकार और कमल आकार सहित कई प्रकार के सुंदर मंदिर बने हुए हैं। यह मंदिर करीब 900 साल पुराना है।
पपौरा क्षेत्र पर जो चौबीसी बनी है, वह भारत वर्ष मे अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। इसमें एक बड़े मंदिर के चारों ओर प्रत्येक दिशा में 6-6 मंदिर हैं

बंधाजी मंदिर टीकमगढ़ | Baghaji Mandir Tikamgarh

 


इस क्षेत्र में लोकमतानुसार मूलनायक श्री अजितनाथ भगवान की पद्मासन प्रतिमा की रचना संवत् 1199 में कराई गई थी। इसके अतिरिक्त मंदिर में भगवान आदिनाथ एवं संभनाथ की खड़गासन प्रतिमा की रचना संवत् 1206 में कराई गई थी।
मूलनायक अजितनाथ भगवान की प्रतिमा को लगभग 900 वर्ष में तलघर में विरजमान किया गया था। क्षेत्र में चन्द्रप्रभु मंदिर भी है, जिसमें सम्राट अशोक कालीन 15 प्रतिमायें विराजमान हैं।
चन्द्रप्रभु मन्दिर में मुंडिया लिपि में अंकित एक शिलालेख भी है। इसे मठ मन्दिर के नाम से भी जाना जाता है। क्षेत्र मे आदिनाथ मंदिर भी है

जैन तीर्थ बंधाजी का ऐतिहासिक मंदिर

: यह क्षेत्र 1500 वर्ष प्राचीन है। मुगल काल में धर्मविद्रोहियों ने भगवान अजितनाथ की मूर्ति खण्डित करने का प्रयास किया
, तभी विद्रोहीजन देवयोग से जकड़ा गये, तभी से इस क्षेत्र का नाम ‘बंधा’ विख्यात हुआ।
मूल नायक भ. अजितनाथ की मूर्ति अतिशय युक्त है।
सन् 1953 में आचार्य श्री महावीरकीर्तिजी ने मूर्ति के जलाभिषेक को सूखे कुएं में डालकर जल से परिपूर्ण किया।
सन् 1997 में 3 माह तक पाँच दूध जैसी धारायें देवयोग से बनी।
एक बार एक संवत् 1890 में कलाकार मूर्तियों को बेचने के लिए ‘बम्होरी जा रहा था। अचानक बैलगाड़ी बम्होरी के पास एक पीपल का पेड़ के पेड़ के पास रुक गई और उसने अनपे सभी प्रयासों को बेकार पाया
और गाड़ी को आगे नहीं ले जा पाया पर जब कलाकार ने फैसला किया कि वह में मूर्ति स्थापित ‘बंधा जी क्षेत्र’ में स्थापित करेगा और उसकी गाड़ी बंधा जी की ओर बढ़ शुरू कर दिया यह मूर्ति अब भी बंधा जी के विशाल मंदिर में स्थापित है।

सन् 1998 में दीपावली पर मूर्ति के सामने रखे दीपों में से एक दीप बहुत धमाके की आवाज देकर फटा जिसके टुकड़े मूर्ति को छोड़कर सभी दूर जा गिरे
। ऐसे अतिशय आज भी क्षेत्र पर देखने को मिलते हैं। आज भी मनोकामना पूरी होती है। दूर-दूर से यात्री आते हैं। क्षेत्र पर प्रतिवर्ष निरंतर 1000 शांतिनाथ नवग्रह विधान होते हैं तथा विधान केसमय कभी-कभी सभी प्रतिमाओं से जलकीधाराआना शुरू हो जाती है।
बंधाजी के बारे में:
900 साल पुराने काले रंग की भव्य और प्रमुख देवता भगवान अजितनाथ की चमत्कारी मूर्ति श्री बांधाजी अतीश्याक्षेत्र के एक तहखाने में स्थापित है। उपलब्ध ऐतिहासिक और पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार यह क्षत्र 1500 से अधिक प्राचीन है। यह स्थान प्राकृतिक और स्वच्छ और शांतिपूर्ण वातावरण से भरपूर खूबसूरत पहाड़ियों के बीच स्थित है।

बुंदेलखंड ’() बुवाखंड’ जो ‘पावा’,, देवगढ़ ’, on सेरोन’, gu करगुवन ’, ha बांधा’, ‘पापोरा’ और uv थ्वोन ’) में स्थित 7 भोंयारे (तहखाने) काफी प्रसिद्ध हैं। ऐसा कहा जाता है कि इन 7 बेसमेंट का निर्माण दो भाइयों द्वारा किया गया था, जिनका नाम ‘देवपाट’ और ‘खेतपत’ था। दो प्राचीन प्रायोजित मंदिर भी यहाँ बनाए गए हैं जो कला और भव्यता के दृष्टिकोण से देखने लायक हैं।
यह क्षेत्र पुरातत्व की दृष्टि से काफी समृद्ध है। जैन धर्म से संबंधित महत्वपूर्ण मामला किसी भी क्षेत्र में, पाउंड, प्राचीन किलों और पुराने मंदिरों में बिखरा हुआ है।
ऐसा लगता है कि यह स्थान मुस्लिम शासकों (मूर्तियों को सुरक्षित रखने के लिए) के दौरान निर्मित चंदेल राजाओं और भोंयारे (तहखाने) के समय में विकसित किया गया था।

मरखेड़ा सूर्य मंदिर टीकमगढ़ | Madkhera Sun Temple Tikamgarh

 


जिला मुख्यालय टीकमगढ़ के निकट मड़खेरा का सूर्यमंदिर और मोहनगढ़ का एतिहासिक किला इतिहास के पन्नाों में अपनी अमर गाथा कह रहा है। टीकमगढ़ जिले के प्रमुख स्थानों में इनका नाम भी शुमार है, पर्यटक स्थली ओरछा का टीकमगढ़ से रिश्ता सर्वविदित है, इतिहास के पन्नाों में ओरछा नरेश द्वारा टीकमगढ़ को बसाने की कहानी जग जाहिर है। 

मरखेड़ा का सूर्य मंदिर टीकमगढ़ से लगभग 20 किमी की दूरी पर है। इस मंदिर के विषय में जानकारी के लिए कोई भी सूचना पटल इस स्थान पर नहीं है। मध्यप्रदेश पुरातत्व विभाग के अधीन यह मंदिर दुर्दशा का साक्षी बनता जा रहा है। शिखर आमलक युक्त इस मंदिर में लघु मंडप हैसूर्य मंदिर के लिए विख्यात मडखेरा टीकमगढ़ से 20 किमी. उत्तर पश्चिमी हिस्से में स्थित है। मंदिर का प्रवेशद्वार पूर्व दिशा की ओर है

तथा इसमें भगवान सूर्य की प्रतिमा स्थापित है। इसके निकट ही एक पहाड़ी पर बना विन्ध्य वासिनी देवी का मंदिर भी देखा जा सकता है।,जो चार स्तंभों पर खड़ा है। गर्भ गृह में सूर्य की स्थानक प्रतिमा है। जिसका जल चढ़ाने के कारण क्षरण हो रहा है।
मंदिर में स्थापित सभी प्रतिमाओं पर जल चढ़ाने से क्षरण हाे रहा है मंदिर के द्वार पट में मिथुन शाखा एवं पुष्प वल्लरी शाखा निर्मित है, इसके दोनों तरपऊ गंगा एवं यमुना नदी देवियों का परिचा
रिकाओं के संग स्थापन है। द्वार के सिरदल पर मुख्य सप्त अश्वरथारुढ भगवान सूर्य विराजमान हैं। उसके अतिरिक्त नवग्रह भी दिखाई देते हैं।

इसके अतिरिक्त व्यालांकन भी है। भित्तियों में कुबेर, दिक्पाल, अश्वारुढ़ सूर्य, ब्रह्माणी, बारह अवतार, नृसिंह अवतार, स्थानक गणपति, निर्मांसा चामुंडा, कीर्तिमुख, अप्सराएँ, गंधर्व, दंडधर इत्यादि स्थापित हैं। प्रतिमा अलंकरण की दृष्टि से यह मंदिर समृद्ध है। इसके समक्ष एक प्राचीन कुंआ भी है। इसके अतिरिक्त कुछ प्रतिमाएं प्रांगण में भी रखी हुई हैं। भारत में सूर्य मंदिरों की संख्या कम ही है, परन्तु बुंदेलखंड में सूर्य मंदिर बहुत सारे हैं।टीकमगढ़ जिले में ही लगभग नौ सूर्य मंदिर बताए जाते है। बुंदेलखंड में वाकाटकों का शासन भी रहा है।मरखेड़ा के सूर्य मंदिर का निर्माण वाकटकों ने कराया था।

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