जाति व्यवस्था में ब्राह्मणवादी धूर्तता
Thursday 27 April 2017
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जाति व्यवस्था में ब्राह्मणवादी धूर्तता
आज अगर हम मौजूदा शासन के अधीन हासिल अधिकारों का भी त्याग कर दें और प्रशासन उन लोगों के हाथ में आ जाए जो वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था के समर्थक हैं तो जाति व्यवस्था के चलते होने वाले अत्याचार कभी खत्म नहीं होंगे
भारत के अलावा दुनिया के किसी अन्य देश में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता कि एक ही देश के लोग जन्म के आधार पर इतनी जातियों में बंटे हों।
हिंदुओं के बीच जाति व्यवस्था के तहत लोगों को प्रमुख तौर पर चार जातियों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में बांटा गया है। यह व्यवस्था उन लोगों में प्रचलित है , जो आर्य सिद्धांतों को मानते हैं कहते हैं कि वे ‘ईश्वर द्वारा बनाए’ गए हैं। हर व्यक्ति जानता है कि इस सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मण शीर्ष पर हैं और उसके बाद शेष जातियां क्रमश: निचले क्रम में। इनमें से आखिरी यानी शूद्र को सर्वाधिक निम्नस्तर का माना जाता है। इसके बावजूद इतनी अधिक जातियों की मौजूदगी की वजह क्या है। ऐसा इसलिए, क्योंकि लोग ‘ईश्वर के अनुसार’ वर्ण में बंटे हुए थे वे धीरे-धीरे पथभ्रष्ट हुए और मिश्रित वर्ण के होने लगे। वर्णों के आपस में मिल जाने के कारण अलग-अलग जातियों का उदय हुआ। ऐसी चूकों के बाद प्रत्येक वर्ण पर नैतिक संहिता लागू की गई। हम यह भी देखते हैं कि ऐसे जातीय विचलन व भेद के बाद पंचम जाति (सर्वाधिक निचली) अस्तित्व में आई।
ऐसे सूत्रों ने यह भी कहा कि हमारे देश में अनेक महत्त्वपूर्ण जातियां ऐसे ही आपसी मेलजोल से सामने आईं। उच्च जाति के लोग पथभ्रष्ट हुए और अपने नैतिक मानकों से डिगे तो इसके परिणामस्वरूप पंचम जाति यानी सबसे पिछड़ी जाति अस्तित्त्व में आई। यह भी कहा जाता है कि तमिलनाडु में लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण वेलाला जाति पंचम जाति में आती है और इस जाति के लोग उन ब्राह्मण और क्षत्रिय युवतियों की संतान हैं, जिन्होंने अन्य वर्ण के पुरुषों के साथ मेल किया।
यह भी कहा जाता है कि इन वेलाला लोगों में से जो लोग खेती से अपनी आजीविका अर्जित करते हैं, उनको ‘कनियालार’ कहा जाता, अगर ये प्रशासनिक पद संभालते तो इनको ‘वेलन सामंतर’ कहा जाता। ‘सुप्रा’ ‘भूतकम’, ‘ब्रह्मा’ ‘पुराणम’, ‘वैकंसम’, ‘माधवीयम’ और ‘सतीविलक्कम’ जैसी पुस्तकों में इस वर्गीकरण के बारे में जानकारी दी गई है।
अगर एक ब्राह्मण किसी वैश्य युवती के जरिये बच्चे पैदा करता तो उनको ‘अंबत्तन’ कहा जाता और अगर ऐसे बच्चे विवाहेत्तर संबंधों से पैदा होते तो उनको ‘कुयवार'(कुंभकार) और ‘नविता’ (नापित) कहा जाता।
इसी तरह अगर एक ब्राह्मण व्यक्ति किसी शूद्र स्त्री से समागम कर बच्चे पैदा करता तो ऐसे विवाह से उत्पन्न बच्चों को ‘बरदवार’ अथवा ‘सेंबतवार’ कहा जाता और जो बच्चे विवाह के रिश्ते से बाहर पैदा होते उनको ‘वेत्तईकरन’ अथवा ‘वेदुवर’ कहा जाता।इसी तरह अगर ब्राह्मण युवती क्षत्रिय पुरुष से संबंध बनाकर बच्चे पैदा करती तो उनको ‘सवर्ण’ अथवा ‘तेलंगर’ कहा जाता।
अगर शूद्र व्यक्ति किसी ब्राह्मण युवती के साथ रहता तो इस संबंध से पैदा होने वाले बच्चों को ‘चांडाल’ कहा जाता। अगर चांडाल किसी ब्राह्मणी के साथ रहता तो इस रिश्ते से पैदा होने वाले बच्चों को ‘चमार’ अथवा ‘सकिलियार’ (चमड़े का काम करने वाला) कहा जाता, अगर चंडाल किसी क्षत्रिय युवती के साथ रहता तो इस दौरान पैदा होने वाले बच्चों को ‘वेनुगर’ (बांसुरी बजाने वाला), कनगर (स्वर्णकार), सेलर (बुनकर) आदि कहा जाता।
इसी प्रकार अगर ‘अयोवह जाति’ की लडक़ी (एक ऐसी जाति जो निम्र और उच्च वर्ग की संकर जाति थी) निषादों से संबंध स्थापित कर बच्चे पैदा करती तो उनको ‘भार्गव’ कहा जाता। इस तरह कई जातियों के नाम संबंधी नियम चलन में थे। इन नियमों को अभिज्ञान कोसाक, अभिज्ञान चिंतामणि और हिंदू पंडितों द्वारा उल्लिखित अन्य पुस्तकों में देखा जा सकता है। इसके अलावा चार प्रमुख जातियों के अलावा उन तमाम अन्य जातियों को कमतर माना जाता जिनकी संतानें किसी उच्च वर्ण की स्त्री और निम्र वर्ण के पुरुष अथवा निम्र वर्ण की स्त्री और उच्च वर्ण के पुरुष के रिश्ते से पैदा होतीं। इसके अलावा विवाह के रिश्ते से बाहर पैदा हुए बच्चों को चेट्टियार और असरियार कहा जाता। इनको अवमाननापूर्ण ढंग से भी संबोधित किया जाता।
ऐसे में अगर हम जाति व्यवस्था को कायम रखते हैं तो इसका अर्थ यह होगा कि हम इन अपमानजनक टिप्पणियों को परोक्ष रूप से स्वीकार कर रहे हैं।
जाति के बारे में
हमने कहा कि चार मूल जातियों के समय के साथ 4,000 से अधिक जातियों में बंट जाने की मूल वजह है एक जाति का दूसरी जाति के साथ संबंध कायम होना। इसके बावजूद हमारे बीच ऐसे लोग हैं जिनको ‘वेल्लार’ कहा जाता है। ये लोग चार जातियों की मूल व्यवस्था को स्वीकार करते हैं। ये जातियां हैं ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य और पंचम। ये खुद को शूद्र मानते हैं। कुछ अन्य लोग उन्हें संस्कृत के वर्गीकृत जातीय नामों की बजाय तमिल के खूबसूरत शब्दों से पुकारते। मसलन, ‘अंतनार’, ‘अरसार’, ‘वनीगर’ और ‘वेल्लार’ आदि। उनका दावा है कि वे श्रेणियां तमिलनाडु में पहले से विद्यमान हैं। यहां ताकि आर्यों के आगमन के पहले से यह व्यवस्था थी और वे चौथे वर्ण में आते थे। यह मिथक गढ़ा गया कि इन चार वर्णों के लोगों की सेवा के लिए अनेक जातियां अस्तित्तव में आईं। इनमें पल्लू, परियाह समेत 18 जातियां शामिल थीं।
‘पल्लू’, ‘परियाह’ और 18 जातियों की इस बात से यह संकेत निकलता है कि ये 18 जातियां चार उच्च वर्णों की सेवा के लिए बनी थीं। इनको निम्रलिखित नाम दिए गए: इलइ वणिकन, उप्पू वणिकन, एन्नई वणिकन, ओछ्छन, कलचछन, कन्नन, कुयवन, कोल्लन, कोयिकुडियन, थचन, थट्टन, नवीथन पल्ली, परियाह, पन्न, पूमलईक्करन, वन्नन और वलयान।
परंतु एक शोधपरक पुस्तक अभिधनकोसाम के मुताबिक यही 18 जातियां शिविगैयर, कुयावर, पनार, मेलाकार, परतवर, सेमबदवार, वेदार, वलईयार, थिमलार, करइयार, सनरार, सैलियार, एन्नई वणिकर, अंबत्तार, वन्नार, पल्लार, पुलियार और सक्किलियार के रूप मे नौकरों की जाति के रूप में उल्लिखित हैं।
इसके अतिरिक्त वेलारों के बीच भी अंतर कुछ इस प्रकार उल्लिखित है: वेल्लार शूद्रों में सबसे श्रेष्ठ हैं, उनमें भी मुंडालियों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, उसके बाद आते हैं वेलंचेट्टी। ये वेलंचेट्टी चोलापुरतर, सीताकत्तर, और पंचुक्ककर मे बंटे हुए हैं। ये सिवार हैं और बिना किसी भेदभाव के अन्य लोगों के साथ एक कतार में बैठ और खा सकते हैं। इसके बाद नंबर आता चोलिया, थुलुवा और विभिन्न श्रेणियों के कोडिक्कल वेल्लार का। इस क्रम में आते हैं अहमबदियार, उनके नीचे मरवार और सबसे नीचे कल्लार। उनके नीचे आते हैं इदइयार और सामाजिक सोपान पर सबसे नीचे हैं कवरइगल और कमावरगल।
यह बात देखी जा सकती है कि उपरोक्त व्यवस्था में बहुत सावधानी से ब्राह्मणों के बीच भेद को दूर रखा गया है। वे ऊंची नीची जातियों की इस बहस से बाहर हैं और उनकी जातीय स्थिति पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता है। यह बात स्पष्ट बताती है कि जाति व्यवस्था की प्रकृति कितनी धूर्ततापूर्ण है। अन्यथा इसमें क्षत्रियों और वैश्यों के झगड़ों की बातें हैं, कौन किससे श्रेष्ठ है, इसका उल्लेख है और बिना किसी पूर्वग्रह के एक दूसरे पर श्रेष्ठता के लिए लड़ाई है। इसके तहत अन्य जातियों को खुद से नीचा बताया गया है। ये सारी बातें देखी जा सकती हैं। अगर अन्य जाति के लोग खुद को साथी जातियों से श्रेष्ठ बताने का तरीका खोजने की कोशिश करते हैं तो बेहद चतुराईपूर्वक उनको यह संकेत कर दिया जाता है कि वे ‘परप्पनार’ यानी ब्राह्मणों से कमतर हैं। अन्यथा वे ऐसे वर्ग निर्माण के रहस्य की गुत्थी का खुलासा करने में कतई उपयोगी नहीं हैं।
इस प्रकार यह स्थापित किया गया था कि ब्राह्मणों के अलावा अन्य जातियां नीची हैं। वे ब्राह्मणों के स्पर्श के काबिल नहीं हैं, न ही ब्राह्मण उनके साथ भोजन करके उनको समान दर्जा देगा। अन्य जातियां कई तरह के अधिकारों से भी वंचित थीं। वे केवल ब्राह्मणों की सेवा करने लायक थे। उनका जन्म अवैध संबंधों, ऊंची-नीची जातियों के संबंधों की परिणति थी। इसकी वजह से विभिन्न वर्ण एक दूसरे से मिल गए और व्यापक तौर पर लोगों की सामाजिक स्थिति खराब हुई। संक्षेप में यही जाति व्यवस्था है।
इसके अलावा इस संबंध में अगर कोई दार्शनिक या तार्किक स्पष्टीकरण दिया जाता है तो वह केवल उन मूर्खों के लिए होगा जो धर्म और वेद, शास्त्र एवं तथाकथित संहिताओं आदि पर यकीन करते हैं। और इन स्पष्टीकरणों को लेकर कोई प्रश्न या आपत्ति खड़ी किए बिना लोगों को अपनी कमतर स्थिति को सहज स्वीकार कर लेने के अलावा कोई चारा नहीं रहता।
इसे छोड़ दिया जाए और अगर हम ब्राह्मणों के अलावा अन्य लोगों की स्थिति और उनको मिले अधिकारों को देखें तो आसानी से यह समझा जा सकता है कि कोई तार्किक अथवा आत्मगौरव संपन्न व्यक्ति इस जाति व्यवस्था को स्वीकार नहीं करेगा। वास्तव में वह इस जातिभेद के अपमानजनक परिणामों के बारे में तो सपने में भी नहीं सोच सकता। ऐसे में अगर आप ब्राह्मणों द्वारा चौथे वर्ण यानी शूद्रों को दिए गए अधिकार और उस वर्ण की स्थिति को देखेंगे तो यह कुछ वैसा ही है जैसे कि मौजूदा सरकार द्वारा कुछ लोगों को पारंपरिक रूप से अपराधी वर्ग का बताना और उन्हें सरकार द्वारा तय किए गए नियम एवं शर्तों के मुताबिक जीवन बिताने को कहना।
उदाहरण के लिए हम धर्म शास्त्रों अथवा संहिता को उद्धृत करेंगे: ‘स्नातमश्वम गजमस्तम ऋषभम काममोहितम शुद्रम क्षरासंयुक्तम दूरता परिवर्जियेम।’ अर्थात ‘एक घोड़ा जिसे स्नान कराया गया हो, एक हाथी जो तनाव में हो, एक सांढ़ जो काम के वशीभूत हो और एक पढ़ा लिखा शूद्र, इन सभी को करीब नहीं आने दिया जाना चाहिए।’
‘जप तप तीर्थ यात्रा प्रवज्र्या, मंत्र साधना देवर्धनम, सचैस्व स्त्री, शूद्र पठठनिशन’ अर्थात ‘मानसिक प्रार्थनाएं, पश्चाताप, पवित्र स्थानों की तीर्थ यात्रा, संन्यास या दुनिया को त्यागना, ईश्वर की उपासना और पूजा- ये सभी महिलाओं और शूद्रों के लिए वर्जित हैं।’
‘न पतेम संस्कृतम वणिम’ यानी शूद्र को संस्कृत नहीं पढऩी चाहिए।
‘नैव शास्त्रम पतेनैव श्रुणवन वैदिकआश्रम, नसंन्यातु दयालपुर्वम थापो मंत्रम सुर्वाजयेल।’ अर्थात ‘एक शूद्र को कभी शास्त्र नहीं पढऩे चाहिए या वेद नहीं सुनने चाहिए। उसे कभी भी सूर्योदय के पहले नहीं उठना चाहिए और न ही नहाना चाहिए। उसे मंत्र पाठ और पापमोचन की इजाजत नहीं है।’
‘इतिहास पुराणानि नपतेस्रोतममार्षि’- एक शूद्र को इतिहास और पुराण नहीं पढऩे चाहिए। लेकिन वह एक ब्राह्मण को उन्हें पढ़ते हुए सुन अवश्य सकता है।’
‘चर्तुवर्णम मया सृष्टम, परिश्रमात्यकम, कर्मम शूद्रस्यापी पवन्नम (गीता)- अर्थात चारों वर्ण मेरे द्वारा बनाए गए हैं। इसके तहत शूद्रों का प्राथमिक कर्तव्य है कि वे अन्यों की सेवा करें। ऐसे हजारों उद्धरण हैं, जिनको समझा जा सकता है। हमारे धार्मिक साहित्य वेदों, धर्म शास्त्रों आदि में यही सब लिखा हुआ है। इन ग्रंथों को ईश्वरीय उत्पत्ति माना जाता है।
हमारे पास एक सरकार है जो इन धार्मिक नियमों का पालन करने को बाध्य नहीं है। इसी तरह हममें से कुछ इन संहिताओं के नियम कायदों के मुताबिक जीने को बाध्य नहीं हैं। लेकिन अगर हमारे धर्म और जाति को बचाने, धर्म और जाति के नाम पर उनको स्थिर करने का प्रयास किया जाता है तो सोचिए हमें इसके चलते किस तरह के अनुभवों से गुजरना पड़ सकता है। जब तक हिंदू समाज में जाति भेद है तब तक ऊंच-नीच की भावना भी रहेगी।
आज जो राष्ट्रवादी हैं और चाहते हैं कि भारत को पूरी आजादी मिलनी चाहिए, उनको यह कोशिश करनी चाहिए कि ब्रिटिश राज में भी जाति प्रथा का अंत किया जा सके। इसके बजाय अगर वे कहते हैं ‘तुम हमें छोड़ दो, हम चीजों का ध्यान रख लेंगे’ तो यह खुद से खुद को जहर देने के समान है। इससे कुछ भला नहीं होगा। भारत में आज 1,000 में से 999 लोग जातिभेद खत्म करने के इच्छुक नहीं हैं। बल्कि वे ऊंची जाति में शामिल होना चाहते हैं ताकि वे अन्य निचली जातियों पर रसूख कायम कर सके। आज अगर हम मौजूदा शासन के अधीन हासिल अधिकारों का भी त्याग कर दें और प्रशासन उन लोगों के हाथ में आ जाए जो वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था के समर्थक हैं तो जाति व्यवस्था के चलते होने वाले अत्याचार कभी खत्म नहीं होंगे।
अनुवाद : मूल तमिल से अंग्रेजी : प्रोफेसर टी मार्क्स
(रिपब्लिक, संपादकीय: (कुडियारासू) 16.11.1930)
अंग्रेजी से हिन्दी : पूजा सिंह
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