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जातिवाद के भंवर में उलझा इंसान, इंसानियत को भूल रहा l जात-पात और छुआछूत बना इंसानियत का दुश्मन

जातिवाद के भंवर में उलझा इंसान, इंसानियत को भूल रहा l जात-पात और छुआछूत बना इंसानियत का दुश्मन


जातिवाद के भंवर में उलझा इंसान, इंसानियत को भूल रहा l जात-पात और छुआछूत बना इंसानियत का दुश्मन

उस नन्हे को क्या पता था
कि जाति क्या होती है ?
पानी के पात्र छूने से
मौत की सजा होती है।

आजादी के 75 वर्ष पूरे हो चुके है, जहाँ देश 'आजादी का अमृत महोत्सव' मना रहा है, लेकिन जात-पात और छुआछूत से आजादी मिलने में अभी शायद फिर से बहुत संघर्ष करना होगा । हम विदेशी शासन से आजादी तो ले चुके है परन्तु हमारे देश में जो उच्च वर्ग कहे जाने वाले जातिवाद के ठेकेदारों से आजादी लेने में अभी कोसों दूर है । एक 9 साल का बच्चा क्या जाने जाति का मतलब ! उसके तो अभी खेलने-कूदने शिक्षा ग्रहण करने के दिन थे । उसने तो स्कूल दाखिला इसलिए लिया होगा की यह से उसे जीवन जीने एवं एक अच्छा इंसान बनने की शिक्षा दी जाएगी । उसे क्या पता था की यह इच्छा इसके लिए जीवन का वलिदान देकर चुकानी पड़ेगी । प्यास बुझाना उस बालक की जैसे मौत की सजा हो गई । जातिवाद के इसी भेदभाव में राजस्थान के जालोर में एक दलित छात्र को अपनी जान गवानी पड़ी । स्कूल में मटके से पानी पीने पर टीचर ने इतनी बेरहमी से पीटा कि छात्र की नस फट गई और इलाज के दौरान उसने दम तोड़ दिया । जाती के नाम पर अत्याचार होने की खबर एक मानसिक गुलामी की ओर इंगित करती है । आए दिन सोशल मीडिया एवं न्यूज़ खबरों में पढ़कर मन फट सा जाता है कि हम किस युग में जी रहे है ? एक तरफ अपने कार्य, संस्कृति, रीति-रिवाजों से संपन्न होने का दावा कर देश विश्व गुरु बनने की तैयारी कर रहा है और दूसरी ओर जाती के नाम पर मासूमों से लेकर बूढों को भी सताया जा रहा है । क्या हमारे देश में इंसानियत से ज्यादा जाति को महत्व दिया जा रहा है, क्या जाति इंसानियत पर इतनी भारी है कि इंसान को इंसान न समझकर उसे पशु से भी बदतर समझा जाता है । यदि ऐसा है तो हमें इंसानियत के पाठ को पढने की फिर से जरूरत है ।

हर स्कूल में और शिक्षा संस्थानों में इंसानियत का पाठ को सर्वोपरि से सिखाया व उस पर अमल करने को लेकर नियम बनाया जाना चाहिए जिसका कड़ाई से पालन किया जाये । सभी धर्म ग्रंथो में गुरु की महिमा को सर्वोपरि एवं उच्च स्थान प्राप्त है, गुरु अपने विद्यार्थिओं के भविष्य निर्माता होता है परन्तु एक गुरु ही जाति के नाम पर भेदभाव करना प्रारंभ कर दे तो विद्यार्थियो में इसकी क्या छाप होगी, इसे सोचकर मन बैठ सा जाता है । इन्द्र नाम के दलित बच्चा पर हुए अत्याचार की घटना ने देश के सामने दलितों पर हो रहे अत्याचार की एक छोटी सी तस्वीर उजाकर की है, यदि इसकी मौत नही होती तो शायद ये अत्याचार चारदिबारी में कही दफन हो जाता । ऐसी हजारो घटनाये रोजाना घटती है जहाँ बेचारा बच्चा डर के कारण अपना मुंह तक नहीं खोल पाता है और इस प्रकार का जातिगत भेदभाव को अपना भाग्य मानकर सहने की आदत डाल लेता है ।

कबीरदास के इस दोहा में गूंढ़ विचार एवं भाव को स्पष्ट करते हुए कहा है-

“कबीरा कुआँ एक हैं पानी भरैं अनेक।
बर्तन में ही भेद है, पानी सबमें एक”।।

आज जाति ने लोगों के मन को ऐसे गुलाम कर दिया है कि मानसिक कुंठा से ग्रसित लोग इसके बाहर जाने की चेष्टा तक नहीं कर पा रहे है । क्या जाति के आधार पर मनुष्य पहचाना जाए? क्या ये ईश्वर के बनाए गए नियमों के अनुरूप है! हम किस ज़माने में जी रहे है इस पर विचार करने की नित्तांत आवश्यकता है । जाति के आधार पर आप किसी की क्षमता, कौशल, ज्ञान आदि की तुलना नहीं कर सकते । सभी को सामान अवसर एवं एक सा माहौल मिले तो मनुष्य के लिए कोई कामम छोटा या बड़ा नही होगा । मौका एवं अवसर मिलने पर बहुत से पिछड़े एवं अभावग्रस्त लोगों ने अपनी क्षमता को साबित करके भी दिखाया है ।

जाति के कूपमंडूक एवं पिछड़ी विचारधारा से ग्रसित लोगो को इस कुंठित मानसिकता से निकालने के लिए कठोर से कठोर नियम तो बनाये गए है परन्तु जाति की गुलामी से निकाlने के लिए नई पीढ़ी को आगे होना होगा और इस प्रकार की मानसिकता के लोगो से आस्तिकता के साथ वास्तविकता को सही तरीके से जरुरत है । किसी मनुष्य को उसकी जाती से नहीं वल्कि उसके गुण कौशल और सामाजिक एवं पारिवारिक नाम से उसकी पहचान हो परन्तु जाति उसकी पहचान की उच्च-निम्न की परिभाषा न बने इसका ध्यान रखना होगा तभी भारत वास्तविक आजादी का जश्न मना सकेगा अन्यथा ऐसी घटना न्यूज़ पेपर एवं सोशल मीडिया के कवर पेज की शोभा बनते रहेगी ।

जाति है कि जाती नहीं,
प्यासे की प्यास बुझती नहीं,
बड़ा अभिमान था इंसान होने का उसे,
जब इंसान को देखा इंसान में
उसमे इंसान था ही नहीं ।

लेखक
श्याम कुमार कोलारे
सामाजिक कार्यकर्त्ता, छिन्दवाड़ा (मध्यप्रदेश)
(स्वतंत्र लेखक एवं साहित्यकार)
shyamkolare@gmail.com

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