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"समाज" मनुष्य की आवश्यकता

"समाज" मनुष्य की आवश्यकता

"समाज" मनुष्य की आवश्यकता 

जब कोई समाज अपने ही मूल स्वरूप से लज्जित होने लगे तब समझ लो की उसका अन्त निकट आ गया मैं यद्यपि समाज का एक नगण्य घटक हूॅ, किन्तु मुझे अपने समाज पर गर्व है और मैं स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करता हॅू। हम विश्व के उस सर्वोत्तम समाज सुधारक साहित्यकार राजनीतिकार और मनीषियों की संतान है जो विश्व में अद्वितीय रहे है। हमे आत्मविश्वासी बनना चाहिए और अपने समाज को गर्व करना चाहिए। जब कभी हम दूसरे समाज की प्रभुत्ता स्वीकार करेगें तभी हम अपनी स्वाधीनता खो देगें और अपनी समस्त चिंतन प्रतिभा समाप्त कर बैंठेगे अन्य समाज के पास अगर कुछ श्रेष्ट है तो उसे ग्रहण करो न की उसका बिना विचारे अनुकरण करो।

यह हमारा समाज ही है जो हमारे लिए जीवन मे आगे बढ़ने के लिए उत्प्रेरक का कार्य करता है। अगर समाज का डर न हो तो इंसान, इंसान नहीं रह सकता है। हम हर पल समाज के आगोश में रहते हैं क्योंकि हम समाज का ही महत्वपूर्ण अंश हैं। समाज की छोटी-छोटी बातें हमें कुछ सकारात्मक व सार्थक कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं साथ ही गलत करने से रोकती भी है।

एक प्रसंग याद आता है कि एक बार एक शहर में आकाल पड़ा पूरा शहर भोजन के दाने-दाने को तरस गया था। उसी शहर में एक बौद्ध भिक्षु भिक्षा मांगने निकले और एक बुढ़िया से कहा कि मां कुछ खाने को है तो दे, भूख लगी है। बुढ़िया ने खीजकर जबाब दिया घर में कुछ भी नहीं है हमारे परिवार ने भी 2 दिनों से भोजन नहीं किया है। बौद्ध भिक्षु ने कहा कि मां ये जो दरवाजे की मिट्टी है वही मेरी झोली में डाल दे। बुढ़िया को अचरज हुआ किन्तु बिना किसी सवाल किये उसने दरवाजे के पास से थोड़ी मिट्टी उठाकर उसकी झोली में डाल दिया। यही उपक्रम अगले 3 दिनों तक चला। रोज बौद्ध भिक्षु भिक्षा मांगने और बुढ़िया के हाथ से मिट्टी लेकर चले जाते। चैथे दिन बौद्ध भिक्षु ने बुढ़िया को प्रतीक्षा करते पाया। बौद्ध भिक्षु को देखते ही बुढ़िया ने उसे बड़े सम्मान से बिठाया और भोजन कराया। भोजन के पश्चात बुढ़िया ने झोली में मिट्टी डालने का रहस्य पूछा। बौद्ध भिक्षु ने बताया कि मां तेरे पास 3 दिनों पश्चात भोजन सामग्री आई तो तू मेरी प्रतीक्षा कर रही थी क्योंकि तेरी समाज को दान देने की आदत समाप्त नहीं हुई थी और इसी कारण मैने अपने झोले में मिट्टी भी इसलिए डलवाई थी कि यह आदत समाप्त होना भी नहीं चहिए। समाज को तन-मन-धन से दान व सहयोग की आदत जीवन पर्यन्त बनी रहनी चाहिए।

समाज कार्य का सार्थक सूत्र है ‘‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे संजानानाउपासते।।’’ अर्थात कदम से कदम मिला कर चलो, स्वर से स्वर मिला कर बोलो, तुम्हारे मनों में समान बोध हो, पूर्वकाल में जैसे देवों ने अपना भाग प्राप्त किया, सम्मिलित बुद्धि से कार्य करने वाले उसी प्रकार अपना-अपना अभीष्ट प्राप्त करते हैं। जैसे छोटी-छोटी कोशिकाऐं ही पूरे शरीर का जीवित रखती है उसी प्रकार समाज का अंश अर्थात व्यक्ति ही समाज को जीवत रख सकता है समाज कार्य के लिए एक छोटा सा शैर है। किः-


‘‘समाज रूपी मशीन के हम सभी व्यक्ति कल-पूर्जे हैं
जंग लगकर मरने से अच्छा है घिस-घिसकर खतम होना’’


श्याम कोलारे 
समाजिक कार्यकर्त्ता 
चारगांव प्रह्लाद , छिन्दवाडा 

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