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मैं हैरान हूँ

मैं हैरान हूँ

मैं हैरान हूँ
यह सोच कर
किसी औरत ने उठाई नहीं ऊँगली
तुलसी पर
जिसने कहा ---
“ढोल गवांर शूद्र पशु नारी
ये सब ताड़ना के अधिकारी!”
.
मैं हैरान हूँ
किसी औरत ने
जलाई नहीं
‘मनुस्मृति’
पहनाई जिसने
उन्हें, गुलामी की बेड़ियाँ.
.
मैं हैरान हूँ
किसी औरत ने
धिक्कारा नहीं उस ‘राम’ को
जिसने गर्भवती ‘पत्नी’ को
अग्नि-परीक्षा के बाद भी
निकाल दिया घर से
धक्के मारकर.
.
मैं हैरान हूँ
किसी औरत ने
नंगा किया नहीं उस ‘कृष्ण’ को
चुराता था जो नहाती हुई
बालाओं के वस्त्र
‘योगेश्वर’ कहलाकर भी
मनाता था रंगरलियाँ
सरेआम.
मैं हैरान हूँ
किसी औरत ने
बधिया किया नहीं उस इन्द्र को
जिसने किया था अपनी ही
गुरुपत्नी के साथ
बलात्कार.
मैं हैरान हूँ
किसी औरत ने
भेजी नहीं लानत
उन सबको, जिन्होंने
औरत को समझ कर एक ‘वस्तु’
लगा दिया उसे जुए के दाव पर
होता रहा जहाँ ‘नपुंसक योद्धओं’ के बीच
समूची औरत जात का
चीरहरण.
मैं हैरान हूँ
यह सोचकर
किसी औरत ने किया नहीं
संयोगिता-अम्बालिका के दिन-दहाड़े
अपहरण का विरोध
आज तक.
और .......
मैं हैरान हूँ
इतना कुछ होने के बाद भी
क्यूँ अपना ‘श्रद्धेय’ मानकर
पूजती हैं मेरी माँ-बहनें
उन्हें देवता और
भगवान बनाकर.
मैं हैरान हूँ!
उनकी चुप्पी देखकर.
इसे उनकी
सहनशीलता कहूँ, या
अंधश्रद्धा
या, फिर
मानसिक गुलामी की
पराकाष्ठा?

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