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श्रद्धा ही श्राद्ध

श्रद्धा ही श्राद्ध


 पड़ा खाट पर बूढ़ा बाबा,करा रहा है दे आवाज

लगी भूख उधर जल रहा,भोज अग्नि से कोई सींच

बना कलेवा बाबा का, ग्रहलक्ष्मी ले आई  थाल

पकवान थे नाना किस्म के,कैसे खाए नहीं थे दांत

मन रोया और तन थर्राया,बूढ़ी अवस्था की है भान

जब युवा था तब तो मैंने,खूब चखे थे इनके स्वाद

नित्य सेवा में जागे सुत,बूढ़ा बरगद को टेक लगाए

इसकी छाया में निर्मम,शीतलता है सबको भायें

मन तृप्त था सेवा से अब,दिया सुत-बहू को आशीष

विपदा न कभी आन पड़े,नहीं झुकेगा तेरा शीश

 भानू का प्रकाश चीरकर,एक पल में आया अंधकार

यमलोक के बुलावा से,नहीं करे कोई इनकार

बूढ़ा बरगद उखड़ गया अब,शीतल छाया मुरझाई

इस पेड़ जाने से सारी,धरती पर थर्राराई

उठ गया सिर का साया ,जिसने थमा था हाथ

कोई ना ले पाया जगह,जिसने दिया जीवन भर साथ

यू कैसे भूल जाए इनको,समर्पित सारा जीवन था

हर खुशी में पीछे रहते,दुख में हरदम आगे था

श्राद्ध उन्हीं का हम मनाते,पितृलोक से इन्हें बुलाते

श्रद्धा है इनके आन की,इनसे मिली पहचान श्याम की

 

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