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कोयला बना कोहिनूर

कोयला बना कोहिनूर



जान गया मैं मेरी कीमत, जो पड़ा था अंधकार कोने में

काला-कुचला बदसूरत सा, था किसी अनजाने में

नजर पड़ी जब जोहरी की, इस मिट्टी के टीले में

हाथ आते ही चमक उठा, किस्मत अपनी सजाने में ।

अपने हाथो से तरासकर, कोयला को कोहिनूर कर दे

कच्ची गीली मिटटी को थाप देकर, सही रूप में गढ़ दे    

लाख कमियाँ हो मगर, इस कमियाँ को भी सीख करदे

ऐसे मिले शिल्पकार हमें कि, पत्थर हुनर से देव करदे ।

ढूंढता फिरा प्रभु उसे चहुओर, न मिला कहीं ज़माने में

मृग भ्रमित हो फिरे ढूंढ़ने गंध को किसी अनजाने में  

वही हाल मेरा हुआ, भ्रमित हो चला इस आशियाने में

लगा हुआ था हरपल, मेरी किस्मत की रेखा सजाने में ।

कुंठा मन की दूर करके, कावलियत का सर्जन किया

परचम लहरा गगन तक, हाथ बुलन्द जब इसने किया    

 आज दी पहचान जगत में, जलाया प्रकाश का दिया

जिसने ज्योति को प्रकाश, अन्धकार हमारा हर लिया ।

खुद अँधेरे में रहकर भी, दीप्त रोशन से सरोसार किया   

हाथ में उनके ऐसा जादू, चमत्कार से तरबतर किया

इसके जादू में बड़ा दम है, इससे ताकतवर किया

इनके दम पर जीती दुनिया,ऐसा तृण हमको किया ।

थाप देकर बहार से ,अन्दर से खूब सहलाया है   

इस मूढ़ मन में ज्ञान भरा, इस शूढ़ को चमकाया है

नमन है उस शिल्पकार को, जीवन जो तरासा है   

जड़ को चेतन कर में, अपना पूर्ण हुनर दिखलाया है ।

मिल गया मुझे एक किनारा, साहिल के आ जाने से

जब तक ना मानो मन से तुम, वो न मिले अनजाने में

बात करता उस गुरु की , इनसा कोई खेवनहार नहीं

गुरु तरासे मूढ़ को तो, जीवन में मिल जाये मोक्ष यहीं ।

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श्याम कुमार कोलारे  

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