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आस भरी निगाहें

आस भरी निगाहें


चौराहों फुटपाथों पर आम जरुरत की सजी दुकाने
तीज त्यौहार या मढ़ई मेला,मोहल्ला का कोई ठेला  
पेट पालने बच्चों का धूप जाड़ा में भी खड़ा रहता
अपनी परवाह न करके दूसरो के लिए तत्पर्य रहता ।

कम लागत की ये दुकाने, स्वाभिमान से चलती है
घर जाकर देखो इनके, दिहाड़ी से भट्टी जलती है
इनकी ये दुकान जिसमे नहीं दिखावा बिकता है
जरूरते ही पूरी होती, नहीं आशियाना बसता है ।

कभी सोचा है सब्जी से मोलभाव कर पांच बचाया
ऑटो वाले से लड़कर दाम में उसका कम लगाया
पहली मोड़ के कोने पर फल बेचने कुचिया बैठी
उससे भी झिक-झिक की पांच उसने ज्यादा लेली ।

इनको कुछ देने में क्यों सबकी यूँ छाती फटती है
बड़ी दुकानों ऊँचे दाम में क्या ये घटना घटती है
ऊँची चमक-धमक में हम ये जस्बात क्यों भूल रहे
अमीरों से न मोलभाव, सब गरीबों को क्यों ठगते है।

एक छोटा आशियाँ,जहाँ अरमान की होली जलती है
एक छोटा सा खिलौना के लिए हररोज मुनिया रोती है
नित्य दिलासा मिलता इसको बाबा की एक आस में
झरोखा वाली चप्पल फिर चली हमारे ही विस्वास में।

श्याम सुध लो ठेलों का भी इनकी भी दिवाली होती है
फुलझड़ी की रंगीन चमक की सबको अरमा होती है
ऊँची चमक से उठकर ध्यान इनका भी रखना होगा
मानवता का फर्ज निभाने हमको कुछ करना होगा ।

आओ एक छोटा काम करे, चौराहों से भी कुछ लेले
मूल्य नहीं सामान का उसकी जस्वातो की कीमत देदे
मीठी दिवाली भी उनकी होगी आशीष हमें लग जायेगा
खुश चेहरों पर मुस्कान देखकर हमें भी आनंद आयेगा ।
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कवी/ लेखक
श्याम कुमार कोलारे
सामाजिक कार्यकर्ता, छिन्दवाड़ा (म.प्र.)
मोबाइल 989373770

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