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कविता- कलम की व्यथा

कविता- कलम की व्यथा

आज कलम चलते-चलते रुक गई
अपनी व्यथा से खुद सिसक गई
अपने भाग्य को देख मजबूर वो
अपने दमन में ही सिमट गई।

अश्रु भरे स्वर से टेरती रही
कोई तो उठाओ आवाज
अरे इसमें क्या मजबूरी है?
महगाई, अनीति, घूसखोरी मिटाओ
हे कलमवीर तुम फिर उठ जाओं।

मैं साथ दूँगी तुम्हारी आवाज बनूँगी
कोई तो मिटाओ भ्रष्टाचार का कलंक
मैं तुम्हारे हाथ की ताकत बनूँगी
पग बनकर साथ हरदम चलूँगी।

मैंने कई गुर्गो को अपनी स्याही से
चेहरों पर कालिख पोते है
अपनी शक्ति से कई बेईमानों को
मैने नानी याद दिलाई हूँ।

क्या नही जानते देश के खातिर
मैंने ही नियम बहुत बनाई हूँ
जिसकी दिशा में देश है चलता
ऐसी रेख बनाई हूँ।

अब हताश बन बैठी हूँ
उन आस्तीनों के सांप से
जो रखते मुँह में राम बगल में छुरी
स्वार्थी जनता की परख रहे मजबूरी।

न कोई उठाता आवाज इनकी
होता जा रहा गरीब और गरीब
धनी की कमाई चौनी बढ़ती जाये
झोंपड़ी में पड़ी बूढ़ी माई
देखो कभी पेट भर न खाए
कबाड़ बीनते छोटे बच्चे
अक्षर तक न जाये।

सयानी हुई गरीब की बेटी
बिन पैसा कैसे ब्याह रचाय?
क्यो नही कोई लिखता इस पर?
ये व्यथा कोई क्यों न बताए ।

कलम हुई क्यो मजबूर अब!
उठी कलम फिर से जगाने
करुण वाणी से टेह लगायें
उठो फिर कलम वीरो तुम
अपने हाथो का करतब दिखाओ।

कोई न रहे मजबूर किसी से
जन जन तक आवाज पहुचाओ
लिख दो तुम देश की व्यथा को
सच्चे कलमवीर तुम कहलाओ ।


(स्वलिखित मौलिक एवं अप्रकाशित रचना)
लेखक

श्याम कुमार कोलारे
सामाजिक कार्यकर्ता, छिन्दवाड़ा(म.प्र.)
मोबाइल 9893573770

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