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समाज विकास में महिलाओं का विशेष योगदान, महिला शिक्षा की राह और सशक्त करने की आवश्यकता

समाज विकास में महिलाओं का विशेष योगदान, महिला शिक्षा की राह और सशक्त करने की आवश्यकता


“देश की बेटी पढ़ जायेगी, वो दो वंश को तार जाएगी
बेटी शिक्षा का रखें ध्यान,देश विकास में धुरी समान” 

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू कहा था - आप किसी राष्ट्र में महिलाओं की स्थिति देखकर उस राष्ट्र के हालात बता सकते हैं” l किसी भी राष्ट्र की उन्नति का अंदाजा वहाँ का प्ररिवेश एवं लोगो की खुशहाली से लगाया जा सकता है, राष्ट्र की खुशहाली तभी संभव है जब राष्ट्र की उन्नति के दोनों पहिया यानि महिला एवं पुरुष दोनों एवं शिक्षित, आत्मनिर्भर एवं सशक्त हो, महिला और पुरुष दोनों समान रूप से समाज के दो पहियों की तरह कार्य करते हैं और समाज को प्रगति की ओर ले जाते हैं। दोनों की समान भूमिका को देखते हुए यह आवश्यक है कि उन्हें शिक्षा सहित अन्य सभी क्षेत्रों में समान अवसर दिये जाएँ, क्योंकि यदि कोई एक पक्ष भी कमज़ोर होगा तो सामाजिक प्रगति संभव नहीं हो पाएगी। राष्ट्र के सामाजिक और आर्थिक विकास में महिलाओं की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता l महिलाओं को शिक्षित करना भारत में कई सामाजिक बुराइयों जैसे- दहेज़ प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या और कार्यस्थल पर उत्पीड़न आदि को दूर करने की कुंजी साबित हो सकती है।  यह निश्चित तौर पर देश के आर्थिक विकास में भी सहायक होगा, क्योंकि अधिक-से-अधिक शिक्षित महिलाएँ देश के श्रम बल में हिस्सा ले पाएंगी। हाल ही में स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा एक सर्वेक्षण जारी किया गया है, जिसमें बच्चों की पोषण स्थिति और उनकी माताओं की शिक्षा के बीच सीधा संबंध दिखाया गया है। इस सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि महिलाएँ जितनी अधिक शिक्षित होती हैं, उनके बच्चों को उतना ही अधिक पोषण आधार मिलता है। परंतु देश में व्यावहारिकता शायद कुछ अलग ही है, वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में महिला साक्षरता दर मात्र 64.46फीसदी है, जबकि पुरुष साक्षरता दर 82.14फीसदी है। उल्लेखनीय है कि भारत की महिला साक्षरता दर विश्व के औसत 79.7प्रतिशत से काफी कम है।



देश में महिला शिक्षा की स्थिति- भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की साक्षरता दर काफी कम है। वर्ष 2011 की जनगणना के आँकड़े दर्शाते हैं कि राजस्थान (52.12प्रतिशत) और बिहार (51.50 प्रतिशत) में महिला शिक्षा की स्थिति काफी खराब है। जनगणना आँकड़े यह भी बताते हैं कि देश की महिला साक्षरता दर (64.46प्रतिशत) देश की कुल साक्षरता दर (74.04 प्रतिशत) से भी कम है। यदि बालिका शिक्षा के प्रति उनके माता-पिता जागरूक नहीं हैं, तो फिर महिला विकास एवं महिला शिक्षा की बात करने का कोई औचित्य नहीं है। यह दुखद सत्य है कि महिलाएँ ही अपने परिवारों की बालिकाओं की शिक्षा-दीक्षा में सबसे बड़ी रोड़ा बनती हैं। वे परिवार के पुरूषों से अक्सर यह कहती मिल जाएंगी कि लड़की को ज़्यादा पढ़ा लिखाकर करना क्या है? आखिर इसे जाना तो पराए घर ही है। इसलिए इसे घर का कामकाज सीखना चाहिए। यह मानसिकता ही स्त्री शिक्षा की दिशा में सबसे बड़ा अवरोधक है। किसी भी देश का सर्वागीण विकास तभी सम्भव है, जब उस देश की पूरी आबादी शिक्षित, जागरूक एवं सचेत हो। हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि हम अपने देश की आधी आबादी को अशिक्षित एवं बेकार बनाए रखकर कभी भी देश का सर्वागीण विकास नहीं कर सकते। शिक्षा किसी भी समाज के सर्वांगीण विकास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपागम होती है। वस्तुतः किसी भी वर्ग, समुदाय, समाज अथवा राष्ट्र के विकास की सबसे पहली सीढ़ी शिक्षा ही होती है। प्रत्येक समाज की संरचना महिला तथा पुरूषों के सामूहिक दायित्वों पर आधारित होती है, किन्तु जब हम शिक्षा एवं महिला के अन्तर्सम्बन्धों पर दृष्टिपात करते हैं, तो सामूहिक दायित्व के समान अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में महिला सबसे निचले पायदान पर खड़ी दिखाई देती है। यदि आज महिलाएँ, दमित, शोषित एवं वंचित दिखाई देती हैं, तो इसका सबसे बड़ा कारण महिलाओं की शिक्षा के प्रति समाज की उदासीनता है। यद्यपि सन 1950 में भारत में महिला साक्षरता की दर मात्र 18.33 प्रतिशत थी, जो सन 2011 में बढ़कर 50 फीसदी से अधिक हो गई है लेकिन यह आंकड़ा भी हमें उत्साहित नहीं करता क्योंकि अभी भी यह दर पुरूषों की तुलना में काफी कम है।


अभी भी स्कूल की पहुँच से दूर है लडकियाँ-
देश के बहुत से पिछड़े एवं दूरदराज क्षेत्रों में बहुत कम लड़कियों का स्कूलों में दाखिला कराया जाता है और उनमें से भी कई बीच में ही स्कूल छोड़ देती हैं। इसके अलावा कई लड़कियाँ रूढ़िवादी सांस्कृतिक रवैये के कारण स्कूल नहीं जा पाती हैं। लड़कियों की उम्र की बढोतरी के साथ ही उनके स्कूल जाने की सम्भावनाये कम होते जाती है
lएनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट 2018 के अनुसार 15-16 आयुवर्ग की 13.5 फीसदी लडकियाँ स्कूल से बाहर थी जिनका किसी भी स्कूल में नामांकन नहीं था l असर रिपोर्ट 2018 के अनुसार मध्यप्रदेश की एक चौथाई से अधिक लडकियाँ अभी भी स्कूलों से बहार : “निःशुल्क एवं बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम” 2010 के लागु होने के बाद सरकार ने शिक्षा का अधिकार सभी तक तक पहुचने का प्रयास किया है l अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद आयुवर्ग 15-16 की 26.8 फीसदी लडकियाँ स्कूल से बहार हो जाती है l लड़कियों की स्कूल में ठहराव पिछली सालो की तुलना में मामूली सी कमी आई है, जहाँ  2016 में 29.8 फीसदी लडकियाँ स्कूल से बहार थी वही 2018 में 26.8 फीसदी हो गयी है l यह स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है l मध्यप्रदेश में बालिका शिक्षा के लिए किये जा रहे प्रयासों जैसे लाड़ली लक्ष्मी योजना, छात्रवृत्ति योजना, कन्या साक्षरता प्रोत्साहन, साईकिल वितरण योजना, गाँव की बेटी आदि योजनाये उच्च कक्षाओं में नामांकन को बढ़ने में सफल नहीं हो पाया है l वर्ष 2018 में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया था कि 15-18 वर्ष आयु वर्ग की लगभग 39.4 प्रतिशत लड़कियाँ स्कूली शिक्षा हेतु किसी भी संस्थान में पंजीकृत नहीं हैं और इनमें से अधिकतर या तो घरेलू कार्यों में संलग्न होती हैं या भीख मांगने जैसे कार्यों में। उल्लेखनीय है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा स्थिति और अधिक गंभीर है।

महिला शिक्षा के पथ पर चुनौतियाँ - भारतीय समाज पुरुष प्रधान है। महिलाओं को पुरुषों के बराबर सामाजिक दर्जा नहीं दिया जाता है और उन्हें घर की चहारदीवारी तक सीमित कर दिया जाता है। हालाँकि ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा शहरी क्षेत्रों में स्थिति अच्छी है, परंतु इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आज भी देश की अधिकांश आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। हम दुनिया की सुपर पॉवर बनने के लिये तेज़ी से प्रगति कर रहे हैं, परंतु लैंगिक असमानता की चुनौती आज भी हमारे समक्ष एक कठोर वास्तविकता के रूप में खड़ी है। यहाँ तक कि देश में कई शिक्षित और कामकाजी शहरी महिलाएँ भी लैंगिक असमानता का अनुभव करती हैं। समाज में यह मिथ काफी प्रचलित है कि किसी विशेष कार्य या परियोजना के लिये महिलाओं की दक्षता उनके पुरुष समकक्षों के मुकाबले कम होती है और इसी कारण देश में महिलाओं तथा पुरुषों के औसत वेतन में काफी अंतर आता है । देश में महिला सुरक्षा अभी एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है, जिसके कारण कई अभिभावक लड़कियों को स्कूल भेजने से कतराते हैं। हालाँकि सरकार द्वारा इस क्षेत्र में काफी काम किया गया है,
परंतु वे सभी प्रयास इस मुद्दे को पूर्णतः संबोधित करने में असफल रहे हैं।


महिला शिक्षा हेतु सामूहिक प्रयास की आवश्यकता - बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की शुरुआत वर्ष 2015 में देश भर में घटते बाल लिंग अनुपात के मुद्दे को संबोधित करने हेतु की गई थी। यह महिला और बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय तथा मानव संसाधन मंत्रालय की संयुक्त पहल है। इसके तहत कन्या भ्रूण हत्या रोकने, स्कूलों में लड़कियों की संख्या बढ़ाने, स्कूल छोड़ने वालों की संख्या को कम करने, शिक्षा के अधिकार के नियमों को लागू करने और लड़कियों के लिये शौचालयों के निर्माण में वृद्धि करने जैसे उद्देश्य निर्धारित किये गए हैं। कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना की शुरुआत वर्ष 2004 में विशेष रूप से कम साक्षरता दर वाले क्षेत्रों में लड़कियों के लिये प्राथमिक स्तर की शिक्षा की व्यवस्था करने हेतु की गई थी। महिलाएं परिवार बनाती है, परिवार घर बनाता है, घर समाज बनाता है और समाज ही देश बनाता है। इसका सीधा सीधा अर्थ यही है की महिला का योगदान हर जगह है। महिला की क्षमता को नज़रअंदाज करके समाज की कल्पना करना व्यर्थ है। शिक्षा और महिला ससक्तिकरण के बिना परिवार, समाज और देश का विकास नहीं हो सकता। महिला यह जानती है की उसे कब और किस तरह से मुसीबतों से निपटना है। जरुरत है तो बस उसके सपनों को आजादी देने की,  समाज में बालिका शिक्षा के लिए समुचित प्रयास करने की आवश्यकता है l आज के परिवेश में लड़का-लड़कियों को समाज रूप से लालन-पोषण देकर समान रूप से शिक्षित कर आत्मनिर्भर बनाने के लिए लोगो को प्रेरित करना आवश्यक है l
 
लेखक - श्याम कुमार कोलारे
shyamkolare@gmail.com

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