आज 'राष्ट्रवाद' ने जातिवाद के झूठ, पाखण्ड, अहंकार, द्वेष पर तथा धर्मान्धता के असहिष्णुता, अविश्वास, ढकोसला, निरर्थक कल्पना और संकीर्ण-सोच पर विजय पायी है।
"ये पब्लिक है, ये सब जान चुकी है"
आज 'राष्ट्रवाद' ने जातिवाद के झूठ, पाखण्ड, अहंकार, द्वेष पर तथा धर्मान्धता के असहिष्णुता, अविश्वास, ढकोसला, निरर्थक कल्पना और संकीर्ण-सोच पर विजय पायी है।
सब प्रोपोगण्डा निष्फल हो गए। यह देश साधु-संन्यासियों, तपस्वियों, ऋषियों, मुनियों और निष्काम त्यागियों का रहा है।आज भीड़तन्त्र में विश्वास रखने वाले निरंकुश, लम्पट, कामी, क्रोधी, स्वार्थी, महत्वाकांक्षी, हिंसक- प्रवृत्ति एवं व्यक्तित्व के धनी लोग आज अपना-अपना चेहरा अपने-अपने अतीत के दर्पण में रह-रहकर झाँक रहे होंगे।अच्छा होगा कि अब भी अपनी जातिमोह व मूढ़ता छोड़कर ये पार्टी अनुयायी उन मनुष्य-जातियों में जाएँ जिनका इन्होंने अपनी सरकार में उत्पीड़न व अपमान किया है। तथा हाथ पैर जोड़कर क्षमा याचना करें कि भविष्य में अब वैसा कुछ नहीं करेंगे जैसा अब-तक करते आए हैं। और विश्वास दिलाना होगा कि केवल वोट के समय ही वो पन्द्रह-पचासी में से पचासी के वर्ग उन्हें नहीं समझा जाएगा बल्कि हमेशा अपनी जाति की तरह उन्हें भी वर्षभर
पचासी में या आल टाइम जीवन भर पचासी में समझा जाता रहेगा। तब शायद वोट प्रतिशत बढ़ जाय! क्योंकि सवर्णो का कुछ उखाड़ नहीं पाए,अत्यंत गरीबों को ही इन लोगों ने सताया। ....और इनके पार्टी सुप्रीम द्वारा सरकारी सेवा में भी आरक्षण के अन्तर्गत अन्य निम्न पिछड़े वर्गों की बिना भेदभाव के भर्ती करने का पूरे साफ मन से ईच्छाशक्ति दिखाना होगा। तथा चुनाव के बाद में ईश्वर को हाजिर-नाजिर मानकर पूर्ण मनोयोग से संकल्प को पूर्ण को तत्पर भी रहना होगा!
सनातन संस्कृति के जीवन में सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह एवं त्याग को महान मूल्य माना जाता है।जबकि भारतीय शिक्षा शास्त्र पचास से अधिक सात्विक मूल्य गिनाए जाते हैं।प्राचीन युग में उनका पालन किया जाता रहा है। ये 'संस्कारजनित मूल्य-साधना' आज के युग में भी कोई बड़ी बात नहीं है।आज भी अनगिनत साधु- संन्यासियों से देश भरा पड़ा है। यदि प्रधानमंत्री आदरणीय नरेन्द्र मोदी जी एवं योगी आदित्यनाथ जी राजनीति में न कूदे होते तो हम इस मूल्यपरक संन्यासी जीवन को इतना विशद रूप में और इतने पास से नहीं जान पाते कि आज के युग में भी प्राच्य-गौरवशाली 'भारत-देश' के वर्तमान में भी उसी युग के समान संन्यासी, त्यागी, ब्रह्मचारी महापुरूष रहा करते हैं जो देश व समाज के लिए घर-बार का त्याग तो क्या अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करते। प्रधानमंत्री मोदी व मुख्यमन्त्री योगी आदित्य नाथ इसलिए नहीं संन्यास लिए थे कि उन्हें राजयोग लिखा है, बल्कि ये तो समाज की गिरती हुई दशा देखकर राजनीति में आ गए या लाए गए। यह देश व देशवासियों का सौभाग्य था।
आज भी प्राचीन संन्यासियों की ही तरह भौतिकता का परित्याग करनेवाले, आत्मसंयमी, अपरिग्रही, सत्य-स्वीकारोक्ति रखनेवाले, जनता को आत्मसात करने वाले तथा जिनमें जनकल्याण की भावना रोम-रोम में समायी हुई है, ऐसे महापुरुष भारत में समय-समय पर अनायास ही दिखाई दे जाते हैं। और समय आने पर वह अपने कार्यों से देश व जनता को उपकृत भी करते हैं।
'भारतीय-संकृति व वैदिक-धर्म', आर्यावर्त में आमजन की 'जीवन-पद्धति' रहा है। विश्व का कोई भी दर्शन ऐसा नहीं है जो हमारे यहाँ पहले से उपलब्ध न रहा हो।जहाँ एकेश्वरवाद है, वहीं घोर भौतिकता व एहिकता में विश्वास रखने वाला चार्वाक-दर्शन भी रहा है। सबने हमसे सीखा है।इसीलिए विश्वगुरू कहलाते हैं हम! क्योंकि हमारे धर्म का मूलाधार 'सत्य और अहिंसा' है। इस पाठ को यहीं से विश्व ने सीखा है।आज भी वह ज्यादा कुछ नहीं तो 'योग' तो अच्छी तरह सीखना चाहता ही है। और ऐसे संन्यासियों के हाथों में जनता देश-प्रदेश की बागडोर को सौपती रही तो विश्व बहुत कुछ सीखेगा...।
प्राचीनकाल काल में मूर्तिपूजा, बलिप्रथा, पर्दाप्रथा, तथा मनुष्यों का वर्गीकरण नहीं था। परवर्ती काल में 'विदेशी-आक्रमण और धर्मविमुखता' दोनों साथ-साथ बढ़ता गया। कुप्रथाएँ आयीं और धर्मग्रन्थों में प्रक्षेपण होने लगा। समाज युद्धों से कमजोर होने लगा था। लोग विभिन्न प्रकार से भीरू होने लगे थे। गरीबी और अशिक्षा का बोलबाला चल पड़ा। कुछ आलसियों ने पूजापद्धतियों में परिवर्तन करना आरम्भ कर दिया, ताकि उनका पेट भरता रहे। विदेशियों और विधर्मियों ने उसका फायदा उठाया और भारतीय समाज को तोड़ने के लिए विभिन्न प्रकट/अप्रकट उपाय किये। विभिन्न युद्धों और आक्रामण से निरन्तर निर्धनता की ओर अग्रसर जनता का ध्यान शिक्षा से हट गया।आक्रांताओं के कारण पर्दा प्रथा की गति इतनी तेजी से बढ़ी की स्त्री-समाज अशिक्षा के गहन-अंधकार में छिपता चला गया।
कोई नहीं सिद्ध कर सकता की 'मनुसंहिता' में अनावश्यक प्रक्षेपण नहीं हुआ होगा और उसकी मनमानी व्याख्या और टीका नहीं हुई होगी...। यह प्रक्षेपण निश्चित रूप से मुगलों के आगमन के बाद ही हुआ होगा। यह वह समय था जब इस प्रकार की सर्जना पर संस्कृत के महान आचार्यों का अंकुश कम होने लगा था। वरना चाणक्य और चन्द्रगुप्त के समय वर्ग-भेद नहीं था। क्योंकि 'चन्द्रगुप्त' और 'नन्द' वर्तमान जातिनाम-क्षत्रिय कुल के नहीं बताए जाते। उसमे से एक मोरपालक के तथा दूसरे नाई के पुत्र बताए जाते हैं। फिर भी ये सम्राट बने। या हो सकता है इतिहास में इनकी मनगढ़ंत जन्मकुण्डली
विदेशी-अन्वेषकों और बाद में वामपंथियों ने लिख दिया हो, जिन्होंने सम्राट अशोक को भी अपने कई भाइयों का हत्यारा बताया है। ताकि भारतीय लोग समझ सकें कि इस्लाम में ही भाइयों के हत्यारे नहीं होते, प्राचीन भारत में भी सत्ता के लिए उस प्रकार का रक्तरंजित संघर्ष होते रहा है।
जो भी हो, जो सत्ता भारतियों को अंग्रेजों से मिली उसमें वर्ग विभेद की बहुत बड़ी खाईं थी। उसके लिए आरक्षण की व्यवस्था संविधान में हुई। विधानसभा एवं लोकसभा में भी इस आरक्षण का प्राविधान किया गया। हर भारतीय ने इसे सहर्ष लिया था, किसी तथाकथित सवर्ण-जाति को भी कोई भी आपत्ति नहीं हुई थी।
पर कालांतर में कांग्रेस के विरोधी 'जनता दल' सरकार ने पिछड़ों के आरक्षण की नई नींव रखी। तत्कालीन प्रधानमंत्री 'वी. पी. सिंह', जिन्होंने समाज में यह विषबेल बोया था, यह सोचकर कि वह बार-बार प्रधानमंत्री बनेंगे या जीवन-भर रहेंगे, उन्होंने अपनी संकुचित राजनीति के तहत बहुसंख्यक वर्ग को हिन्दू समाज से अलग करने का प्रयास किया। वहीं उनकी पार्टी 'जनता दल' देश के कुछ प्रमुख प्रान्तों में मुख्यमंत्रियों की महात्वाकांक्षाओं के कारण टूट-टूट कर नयी उपाधि पाती गई। और प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह को आगे की राजनीति में कोई लाभ नहीं मिल सका।
जिनको लाभ मिला। वे विभिन्न उपायों से एक नया आर्थिक सवर्ण उस वर्ग के बनाए जिनमें वे स्वयं जन्में थे।और तीन दशक तक अन्य तथाकथित पिछड़ी जनता के आरक्षण के नाम पर स्वयं की जाति के उद्धार के लिए कुण्डली मार कर गाउज-माउज करते रहे। उन लोगों ने तथाकथित सवर्ण जातियों के विरुद्ध खूब जहर उगला।कुत्सित राजनीति की प्रारंभिक शुरुआत में पन्द्रह-पचासी का नारा देकर स्वयं को दलितों का मसीहा दिखाने का प्रयत्न किया और सफल भी रहे। यहाँ तक कि अपने धर्म और देश को विभिन्न प्रकार से कोसना प्रारंभ किये। 'हल्ला बोल' और 'भूरे बाल निकाल' जैसे घृणित मानसिकता के नारे दिये। पर सत्य छिपता नहीं है। मन के अन्दर बैठा शैतान बहुत ज्यादा देर अन्दर बैठा नहीं रह सका। निकलना ही था उसे। एक बार उत्तर-प्रदेश में दलित और पिछड़ा वर्ग मिलकर चुनाव सन 1993 ई. में लड़े। स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने से दोनों सत्ता लोलुप पार्टियों ने छ:-छ: महीने क्रमशः सरकार चलाने का आपसी समझौता किया। पर छ: महीने बाद पिछड़ों के नाम पर बनी समाजवादी पार्टी की सरकार ने सत्ता हसतांतरित करने के बजाय दलित के नाम पर बनी बहुजन समाज के पार्टी पर विधान सभा में ही हमला कर दिया। तब न तो उन्हें दलित पार्टी से भाईचारा का खयाल रहा न नारी-सम्मान का, न ही संविधान का।
अविश्वास की रेखा खिंच गयी। पिछड़ी जाति के अगड़ों ने विधानसभा का बदला दलितों से लेने के लिए अंबेडकर जी की मूर्तियाँ हर गाँव चौराहे पर तोड़ना प्रारंभ कर दिया। निर्धन-दलितों को मारना-पीटना और लूटना तब तक निरन्तर जारी रखा, जब तक बुद्धिजीवियों की पार्टी कही जानेवाली बीजेपी के सहयोग से दलितों की पुनः सरकार नहीं बन गयी, और दलित उत्पीड़न ऐक्ट नहीं पास हो गया।
इधर इस बार सन 2022 ई. में पाँच वर्ष सत्ता से दूर रहकर अपनी करनी भूलकर फिर समाजवादी पार्टी ने एक हजार वर्ष पूर्व का 'कुछ सत्य-कुछ मनगढ़ंत' शोषण के दास्तान निम्न-पिछड़ों, दलितों को पुनः सुनाना प्रारंभ कर दिये था। विदेशी सभ्यता और आक्रामकता की खुबियाँ बतायी जाने लगी। मुर्गी, गाय, बकरी काटने वाली, भारत देश तथा उसकी मौलिक जन-संस्कृति से घृणा करने वाली जातियाँ सभ्य लगने लगीं...। यह भी बताया जाने लगा कि 'राष्ट्रवाद मनुवाद का खोल ओढ़कर आता है।'
'पर यह पब्लिक है और यह पब्लिक अब सबकुछ जान चुकी है।' यह ये भी जानती है कि जमीदारों के लठैत और गरीबो के लिए डाकू कौन हुआ करते थे।रात भर में दूसरों का खेत कौन काट लिया करते थे। ये कौन है जो अपनी भैंस को पालने के लिए दूसरों के फसल को फसल नहीं समझता है।आज भी इस वर्ग के एक से एक हास्यास्पद किस्से हैं जो तथाकथित निम्न-पिछड़ी जातियों में चर्चा और मनोरंजन का विषय बनी हुई हैं।आज भी यह वर्ग अपनी कलाबाजियांँ दिखाने से नहीं चूकता है, जो गाय दुहकर हाँक दे रहा है सरकार को बदनाम करने के लिए और अपनी दबंगई दिखाने के लिए। यह वही आततायी समाजिक-वर्ग है जो अन्य निम्न पिछड़े वर्गो पर रौबदाब रखते हुए चुनाव में उनका वोट न पड़ने देने की हर संभव उपाय करता है। यह तीन दशक में उभरा नया अर्थ-समृद्ध-समाज है जो अन्य पिछड़े वर्गों के अवसरों को अपने लिए चूसकर मोटा हुआ है। "यह पब्लिक है, यह सब जान चुकी है।*
आज आम जनता चुनाव जीत चुकी है। क्योंकि वह जानती है कि उसे भूख से छुटकारा कैसे मिला है।सबके सिर पर पक्की छत कैसे आयी है।
अब छत नहीं है तो केवल कुछ सवर्णों के पास नहीं है जो समाजवादी पार्टी के बहुसंख्यक अनुयाइयों के गाँव में रहते हैं। क्योंकि उनके गांँवों का प्रधान 'बहुसंख्यक पिछड़ों में अगड़ी जाति' का मुखिया है। वह सवर्णो के नाम पर पिछड़ों को भड़का कर वोट लेता है और नेतागिरी चमकाता है। ज़ो सवर्ण हैं उनके यदि 'घर और शौचालय' नहीं है तब भी वह प्रधान कागज नहीं बनवाता, क्योंकि उसे सवर्णों के वोट की आवश्यकता नहीं है। जिनके घर नहीं है उनका भी रिपोर्ट बनाकर भेज देता है कि 'घर है।' अधिकारी भी पड़ताल नहीं करते, क्योंकि वो मान लेते हैं कि सवर्ण हैं तो गरीबी रेखा से ऊपर ही होगा।
इधर चुनाव हारे हुए लोग व उनकी नाम की क्षद्म-समाजविश्वासी पार्टी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तथा केन्द्र राज्य में उनके सुशासन से कराह रहे हैं। क्योंकि ये त्रुटि का कोई भी कारण न छोड़ने वाले दो संन्यासी डबल इंजन की सरकार चला रहे हैं। जिन्होने समाजसेवा और देशसेवा का व्रत लिया है। फिर भी ये विपक्षी जातिमोह से इतना अधिक ग्रस्त हैं कि वे अपने कुचक्र का असफल प्रयास बार-बार कर मुँह की खा रहे हैं।उनको कोरोना की वैक्सीन पार्टी विशेष की वैक्सीन लग रही है। वे इतने आत्ममुग्ध हैं कि सारी जनता उनको अपनी खेती-बाड़ी लगती है। वे उसका उपभोग करने के लिए जन्मे हैं। उनके अनुसार... 'भला साधु-संयासियों को देश की राजनीति एवं सरकार में बैठने का क्या काम?'
इस सन्यासी-राजनीति से भारत का फिर से भाग्योदय दिख रहा है। ईश्वर अपने कुछ अंशों को इन महापुरुषोँ के अन्दर प्रवेश करा चुका है।'मंहगाई है, दुकानदारी कम चल रही है, नौकरी की वैकेंसी समय से नहीं निकाली जा रही है। फिर भी पता नहीं कौन सा सुकून है जो जनता को प्राप्त हो रहा है जो दो बार से लगातार चुन रही है।'
केन्द्र व राज्य की पारदर्शी शासन में इस समय 'राष्ट्र प्रथम सदैव प्रथम' है। जबकि विपक्ष का ध्येय 'परिवार प्रथम, सर्व प्रथम' है। इस सरकार में सबका साथ सबका विकास का लक्ष्य है। वहीं परिवारवादी पार्टियों में बस अपनी एक जाति के विकास का लक्ष्य है।
यह वह सरकार है जो जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान का नारा देती है। वह स्टार्टअप व स्टैंडअप की जोर से तकनीकी शिक्षा व रोजगार का नारा देकर युवाओं को आत्मनिर्भर भारत से जोड़ता है। पर विपक्ष के कान में दर्द होने लगता है। उसके पैरों मे जलन होने लगती है। न उससे सुना जाता न चला जाता है। अब जाए तो जाए कहाँ! एक जगह बैठ गया है अपने-अपने घरों में इ. वी. एम. पर समीक्षा के लिए। क्योंकि चुनाव बैलेट पेपर रहता तो कुछ उपद्रव के दाव लगते! पर कोई दाव ही नहीं लग रहा है, अब क्या करें...!
इधर सरकार के विभिन्न प्रयास द्वारा विद्यालय व बोर्ड की परीक्षाओं में नकल और कार्यालयों में भ्रष्टाचार की गहरी जड़ें आजकल उत्तरोत्तर हिलती जा रही हैं। सरकारी सेवा की भर्तीयों में भ्रष्टाचार न के बराबर हो चुका है।
सोचने वाली बात है कि राष्ट्रवाद की आँधी में सारे खोखले व लोकलुभावन वायदे और आश्वासन तिनके की भाँति उड़ गए। सरकारी कर्मचारियों के लिए पेंशन अति-आवश्यक आवश्यकता है फिर भी युवाओं ने अराजकता, गुण्डागर्दी, भीड़तंत्र और भ्रष्टाचार के पर्याय समाजवादी पार्टी को स्वीकार नहीं किया। इन युवाओं को अपना संघर्ष केन्द्र और राज्य सरकार के सामने और तेजी से जारी रखना है। इन्हीं बातों और राष्ट्रीय शुभ धार्मिक उद्देश्यों के साथ....
भारत माता की जय! वन्दे मातरम! सत्य की जय हो!अधर्म का नाश हो! प्राणियों मे सद्भावना हो!जय आर्यावर्त्त।जय भारत!!🙏
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🖊️ साभार : बृजेश आनन्द राय, जौनपुर।
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