हलधर की मुश्कान
Sunday 27 March 2022
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कविता- हलधर की मुस्कान
पीली पड़ गई गेंहूँ की बाली
लाल हो गई टीसू की लाली
शुष्क पवन के मंद झकोरे
खड़ी फसल में नृत्य उकेरे
देख कर अन्न की बाली
बढ़ जाये चेहरों की लाली।
कहीं खड़ी है कहीं पड़ी है
कहीं ढेरम ढेर लगी है
लगे संयोजने भूमिपुत्र यूँ
अपने हजारो कर चले है
अन्न का ढेर है खलिहानों में
दमके जैसे हो कोई स्वर्ण
मेहनतकश का खिलता मुख
मानो चुन लिया पीला वर्ण।
देख खेत का उज्वल चेहरा
खिलता चेहरा हलधर का।
देख चना मटर बेर को
मन प्रसन्न हो जाता है
सुखद अनुभव देख ऐसा
मन बाग जो जाता है।
फूला मौर अम्बा का ऐसा
मंडराए मकरंद है जैसा।
बड़ा मनोहक दृश्य खेत का
मुस्काये ये फूलो सा।
लेखक
श्याम कुमार कोलारे
छिन्दवाड़ा, मध्यप्रदेश
मोबाइल 9893573770
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