शिक्षा व्यवस्था के गुनहगार
बात जरा सत्य और बिल्कुल खरी है कि आज उत्तर प्रदेश में गुरु कहलाने वाले शिक्षकों की बेबसी का कोई पुरसाहाल नहीं है।प्रायः बात बात पर शिक्षकों की आलोचना करने वाले प्रबुद्ध और जागरूक लोग भी सबकुछ जानते हुए मौन हैं,यही स्थिति शिक्षा के लिए और भी खतरनाक है।अतः प्रबुद्धजनों का सरकार निष्ठ होना भी शिक्षा की दुर्गति का एक प्रमुख कारण है।
उत्तर प्रदेश में शिक्षकों और शालाप्रधानो कि भर्तियों के लिए गठित माध्यमिक शिक्षा सेवा चयनबोर्ड आजतक 2011 व 2013 के प्रधानाचार्यों की विज्ञप्तियों के मुताबिक भर्ती नहीं कर सका है,जबकि बोर्ड बराबर चलने का स्वांग करता रहा है।चयनबोर्ड,जोकि साक्षात्कार के नामपर बोली बोलकर अभ्यर्थियों से उगाही करता है,स्वयम भी उत्तर प्रदेश में शिक्षा के गिरते स्तर के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार है।दस दस वर्षों तक रिक्त पदों पर भर्तियां न होने से आखिर नुकसान तो विद्यार्थियों का ,विद्यालय का और समाज जा ही होता है किंतु पूरा पूरा अमला ही भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबा हुआ मोटी मोटी पगार और भत्ते लेने के बावजूद कुछ करने में असफल है।हकीकत में चयनबोर्ड पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलना चाहिए।भर्तियों के विज्ञापनों में खामियों के आधार पर कोर्ट कचहरी में लटकी भर्तियां चयनबोर्ड के नकारा अधिकारियों की मूर्खतापूर्ण शर्तों के ही प्रतिफल हैं।अतः शिक्षा का असली गुनहगार अगर सचमुच कोई है तो वह चयनबोर्ड है।इसके अलावा अन्य अधिकारी व सरकारी तंत्र तथा नेता मंत्री भी कम दोषी नहीं हैं।
बात चाहे माध्यमिक शिक्षा निदेशक विनय कुमार पांडेय याकि अपर मुख्य सचिव श्रीमती आराधना शुक्ला या अन्य जुड़े तंत्र की की जाए तो ये भी कम गुनहगार नहीं हैं।उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद की बोर्ड परीक्षाओं में खूब तड़क भड़क दिखाकर वाहवाही लूटने वाले माध्यमिक शिक्षा निदेशक और अपर मुख्य सचिव दोनों ही केवल गूगल मीट पर बैठकें करने और आयेदिन तुगलकी फरमान जारी करने में बहुत तेज़ हैं।जबकि बोर्ड परीक्षाओं की उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन का पारिश्रमिक आज भी वर्ष 2018,2019 व 2020 का करोड़ों रुपये सरकार पर शिक्षकों का बकाया है।मजेदार तथ्य तो यह है कि 2022 की उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन का दिन व समय सबकुछ इन अधिकारियों द्वारा तय कर दिया गया है किंतु बकाया पारिश्रमिक परीक्षकों को कब मिलेगा, आज भी तय नहीं है।इससे और अधिक घटिया तथा शर्मनाक स्थिति तो शायद विश्व के किसी भी देश में देखने को नहीं मिलेगी।अब शिक्षक अगर अपने ही बकाए धन के लिए हडताल न करे तो और क्या करे,यह प्रबुद्धजनों को भी बताना चाहिए।
कदाचित कॉग्रेस के लिये जिस प्रकार मिस्टर साइलेंट पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं कमोवेश वैसे ही दूसरे नम्बर के श्रीमान चुपचाप पूर्व माध्यमिक शिक्षामंत्री दिनेश शर्मा भी शिक्षा व्यवस्था में सुधार के नामपर उत्पीड़न के पर्याय रहे।श्री शर्मा को शायद ही कभीकभार किसी ने मुस्कुराते हुए देखा हो।कहना गलत न होगा कि परीक्षाओं की तैयारी और ऑनलाइन शिक्षण के नामपर खूब वाहवाही बटोरे दिनेश शर्मा के कार्यकाल का करोड़ों रुपये बतौर मूल्यांकन व कक्ष निरीक्षण पारिश्रमिक अबतक परीक्षकों को भुगतान न किया जाना किसी भी संजीदा विभागीय मंत्री की विशेषकर उपमुख्यमंत्री व विभागीय मंत्री की हो ही नहीं सकती।हालांकि अब ये दारोमदार नई मंत्री श्रीमती गुलाब देवी की हो चुकी है किंतु 23 अप्रैल से प्रारम्भ होने जा रहे मूल्यांकन कार्य के पूर्व पारिश्रमिक भुगतान की कोई गुंजाइश अबतक दिखाई न पड़ने से इनकी भी कार्यप्रणाली परीक्षकों के मूल्यांकन के हवाले है।
आयेदिन शिक्षकों की आलोचना करने से बाज न आनेवाले सियासी नेताओं और विभागीय अधिकारियों तथा जिम्मेदार लोगों को शिक्षकों की छोटी से बड़ी सभी समस्याओं पर भी मन्थन करना चाहिए।चयनबोर्ड से चयनित शिक्षक ही बता सकते हैं कि जिला विद्यालय निरीक्षकों के कार्यालयों से विद्यालयों के प्रबंधकों तक उन्हें कितनी बार कुर्बान होना पड़ता है।इसीतरह किसी भी शिक्षक का चयन वेतनमान,प्रोन्नत वेतनमान,पदोन्नति,वेतन निर्धारण अगर एक भी शिक्षक कह दे कि बिना घूस या पैरवी के हुआ तो ऐसा एक भी शिक्षक शायद नहीं मिलेगा।जिला विद्यालयों के कार्यालय जैसे संग्रह कार्यालय और टोलप्लाज़ा बनते जा रहे हैं।जहां से गुजरने वाले हर शिक्षक को बिना कर अदायगी के जाने नहीं दिया जाता।किसी भी शिक्षक का प्रथम वेतन भुगतान बिना लेखाकार व लेखाधिकारियों की उगाही के सम्भव ही नहीं है।आखिर अपने ही श्रम पसीने से कमाए धन के शिक्षक को कितनी बार घूसखोरी का शिकार होना पड़ता है यह बात किसी से छिपी नहीं है।लिहाजा शिक्षकों व शिक्षा के गुनहगार न केवल चयनबोर्ड व उसके अधिकारी हैं अपितु शासन में बैठे सचिव,निदेशालय में निदेशक,मंडलों पर संयुक्त शिक्षा निदेशक व उप शिक्षा निदेशक तथा जिलों में स्वयम साक्षात जिला विद्यालय निरीक्षक जैसे अधिकारी भी हैं।इसके अलावा बचाखुचा और आखिरी का हिसाब प्रबंधकों द्वारा चुगता किया जाता है।इसप्रकार आर्थिक व मानसिक रूप से नित्य शोषण का शिकार कितनी अच्छी शिक्षा प्रदान करेगा,यह विचार विचारणीय है।
दिलचस्प बात तो यह है कि मंडलीय कार्यालयों में कार्याधिक्य को देखते हुए सहजता हेतु पेंशन व भविष्यनिधि तथा अनिवार्य बीमा के प्रभार उप शिक्षा निदेशकों व पदोन्नति,विनियमितीकरण, वरिष्ठता निर्धारण आदि कार्य संयुक्त शिक्षा निदेशकों के हवाले हैं।जबकि यह स्थिति शिक्षकों के लिए दोहरी कष्टकारी है।उप शिक्षा निदेशक कार्यालय रिटायर्ड शिक्षकों के पेंशन आदेश निर्गत करने के लिए भी 15000 से 50000 तक की जबकि जीपीएफ से चाहे अग्रिम लोन हो या अंतिम भुगतान बिना 10000 से 25000 तक औरकि कभी कभी धनराशि की मात्रा के अनुसार आनुपातिक रूप से लेकर ही आदेश करते हैं।इसीतरह संयुक्त शिक्षा निदेशक भी कार्यपूर्व सौदेबाजी ही करने में मशगूल रहते हैं।
इसप्रकार सारसंक्षेप में कहा जा सकता है कि माध्यमिक शिक्षा सेवा चयनबोर्ड, शिक्षानिदेशक,शासन के सभी सचिव स्तरीय विभागीय अधिकारी व मंडलों तथा जिलों के शिक्षाधिकारी व 95प्रतिशत प्रबन्धक शिक्षा की दुर्गति हेतु असली गुनहगार व जिम्मेदार हैं।अगर इनके पापों का लेखाजोखा बनाया बनाया जाय तो चयनबोर्ड पर भर्तियां लटकाने के जुर्म में राष्ट्रद्रोह का मुकदमा भी चलना बिल्कुल मुनासिब होगा।
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