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(बाल- कहानी) गुरु की परीक्षा

(बाल- कहानी) गुरु की परीक्षा


मधुवन-कानन में बहुत बड़े ऋषि तिलकेश्वरानन्द जी हुए।जिन्होंने उस कानन में अपना आश्रम बनाया।और आस-पास के नव-निहालों को  शिक्षित और दीक्षित करने लगे।और इस प्रकार अन्यान्य बालकों ने आश्रम में शिक्षा प्राप्त शुरू कर दिया।सभी बालकों ने उन्हें गुरुजी कहकर पुकारने लगे।वह गुरुजी हमेशा अपने सन्देश में तीन बातें किया करते थे।पहली गुरु के प्रति समर्पण।दूसरी गुरु की सेवा।तीसरी गुरु के आज्ञा का पालन।

समय बीतता गया।सभी बालकों ने साम,दाम,दण्ड,भेद,और स्वावलंबन कि शिक्षा में पारंगत हो गए।गुरुजी ने अपने तीन शिष्यों को छोड़कर आश्रम के सभी शिष्यों को मंगलमय जीवन का आशीर्वाद देकर उनके घर के लिए विदा कर दिया।

अब बचे तीन शिष्य पहला रामा,परमा,और विद्या।

रामा सबसे बड़ा,परमा मंझला और विद्या सबसे छोटा शिष्य था।तीनो के सेवा भाव को देखकर गुरुजी अत्यंत प्रसन्न थे।पर तीनों शिष्यों में योग्य कौन है गुरुजी को समझ नही आ रहा था।योग्य शिष्य की पहचान करने गुरुजी ने उनकी परीक्षा लेना चाही।और इस प्रकार उन्होंने तीर्थाटन का बहाना बनाकर अपने आश्रम से तीनों शिष्यों को लेकर  वहाँ से निकल पड़े।

घनघोर जंगल कटीली और पत्थरों की उबड़-खाबड़ रास्ते हिचकोले खाते हुए चारो आगे बढ़े जा रहे थे।कुछ मील चलने के बाद गुरुजी को बहुत प्यास लगी।उनका गला सुख गया।और प्यास के मारे वो तड़पने लगे।और वहीं एक पेड़ की छाया के नीचे गस्त खा के बैठ गए।

सभी शिष्य देखकर चिंतित हो गए।

तभी गुरुजी ने पानी लाने का ईशारा करते हुए कमंडल को दिखाया।

जी गुरुदेव!!

कहते हुए तीनो शिष्य निकल गए।

पर पहला और दूसरा शिष्य बिना पानी लाये वापस आ गए।

गुरुजी ने इशारों में पानी मांगा।

पर दोनों शिष्यों ने मुह लटका दिया।और झेंपते हुए कहा-

"हमे नही मिला!!

"विद्या ला ही रहा है गुरुदेव।"

इधर विद्या पानी की तलाश में घनघोर जंगल मे भटकते हुए उस जगह पहुँचा,जहाँ घास-फुस से ढँका एक भयानक और अँधा कुँआ था।जिसकी सीढ़ियाँ घास-फूस से नजर नही आ रही थी।तभी डरे-सहमे विद्यानन्द पास में जाकर कूएँ में झाँका।बहुत गहरी थी।धुंधला सा पानी नजर आया।और आव देखा न ताव झटके से सीढ़ियों के सहारे कूएँ में उतर गया।जैसे ही पानी के पास पहुँचा वहाँ काला नाग फन फैलाये उसके आने की प्रतीक्षा कर रहा था।वह सहम गया।पर हिम्मत न हारते हुए,

बहुत जद्दो-जहद करने के बाद भी वह पानी भर पाने में सफल नही हुआ।क्योकि वह साँप फुफकारते हुए काटने को दौड़ रहा था।विद्यानन्द चुपचाप झटके से ऊपर आया और कुछ कंकड़ पत्थर को लेकर नीचे पहुँचा।और साँप के विपरीत दिशा में पत्थर को पानी मे दे मारा।जैसे ही उधर पानी मे आवाज आई साँप उधर मुड़ा और फिर एक झटके में विद्या कमंडल में पानी भर के ऊपर बाहर आ गया।और झट से अपने गुरुजी के पास पहुँच कर कहा-

गुरुजी गुरुजी पानी!!

गुरुजी पानी पाकर प्रसन्न हो गए।

पुनः गुरुजी वहाँ से अपने शिष्यों को लेकर आगे बढ़े।कुछ मीलों आगे चलने के बाद उनको बड़ी जोरों की भूख लगी।गुरुजी ने कहा-

"शिष्यों मुझे बहुत भूख लगी है।मेरे लिए कुछ फलाहार की व्यवस्था करो!!"

तीनो शिष्य यहाँ-वहाँ फिर तलाश करने लगे अचानक उनको एक पेड़ दिखा जो मीठे रसीले फलों से लदा हुआ था।पर फल बहुत ऊपर में था।गुरुजी ने आदेश किया-

"ऊपर पेड़ में चढो और फ़ल तोड़कर लाओ!"

तीनो शिष्य बहुत प्रयास किये पर चढ़ने मे सफ़ल नही हुए।तब गुरुजी स्वयं पेड़ पर चढ़ने के लिए आतुर हो गए।विद्या को यह उचित नही लगा।तब विद्या ने कहा-

"गुरुजी आप यहाँ आराम से बैठिए।"

गुरुजी ने कहा-"क्यों?"

"क्या मैं नही चढ़ सकता?"

तब विद्या ने कहा-

गुरुजी ऐसी बात नही है आप से क्या सम्भव नही है।पेड़ पर चढ़ते हुए यदि आपको कुछ हो गया तो हम बेसहारा हो जाएंगे।हमारा जीवन अंधकारमय हो जाएगा।सच्चा गुरु बार-बार जन्म नही लेता।आपको हम खोना नही चाहते।आप सैकड़ों शिष्य जरूर बना सकते हैं।इसलिए आप मत चढ़िए।गुरुजी विद्या के तर्क भरी बातों से सहमत हो जाते हैं।और पुनःविद्या पेड़ पर चढ़ने में सफल हो,फल तोड़ लाता है।"गुरुजी फल-फल कहते हुए दे देता है।"

गुरुजी पुनः प्रसन्न हो कर भूख मिटाते हैं।

गुरुजी फिर वहाँ से आगे बढ़ते हैं।और कुछ दूर ही चल पाए थे कि उनके पाँवों में काँटे चुभ जाती है।और वे कराहते हुए बैठ जाते हैं।और कहते हैं-

"शिष्यों अब मुझसे चला नही जाता मुझे कोई कंधे पर बिठाकर ले चलो।"

रामा और परमा बारी-बारी कंधे पर बिठाकर कुछ कदम ही चल पाए।पर अंत मे उन्होंने असमर्थता जाहिर कर दी।

गुरुजी उन दोनों की कमजोरियों को भाँप गए।

ऐसे दृश्य की देखकर विद्या झट से "गुरुजी!गुरुजी!"कहते हुए अपने कंधे पर उठा लिया।और फिर वहाँ से रवाना हो गया।

पूरा दिन बीत गया शाम हो आई अँधेरा छाने लगा।पँछी अपने बसेरों में जाने लगे।वातावरण में नीरवता आ गई।और फिर कुछ दूरी यात्रा के बाद, नीरवता और अँधेरों को चीरती हुई घण्टी की आवाज और दीए की टिमटिमाती लौ का आभास होने लगा।

और कुछ समय बाद उस तीर्थ मंदिर के पास पहुँच गए।जहाँ पहले से ही निर्धारित था।

विद्या हाँफ रहा था।गुरुजी ने कहा-

"बस बेटा!बस! मुझे नीचे उतारो।तुमने मुझे आज तीर्थाटन करा दिया।तुम धन्य हो बेटा विद्या!मैं तुम्हारी गुरुभक्ति से गदगद हूँ।

तुमने मेरे द्वारा कही गई तीन बातों को अपने व्यवहारिक जीवन मे उतारा।तुम मेरी परीक्षा में पास हो गए।और रामा,परमा नापास हुए।दोनो अयोग्य है।नकारे हैं।पर तुम मेरे सच्चे शिष्य हो।और आज मैं तुमको आशीर्वाद देता हूँ,तुम अब विद्यानन्द के नाम से जाने जाओगे।और मेरी तरह तुम नव-निहालों को इस जगत को तुम अपना ज्ञान देकर आलोकित करोगे।"इतना सुनने के बाद विद्या गुरुजी के चरणों मे गिर गया गुरुजी उसे हृदय से लगा लिया।दोनों के आंखों से अश्रु की धरा बह रही थी।और रामा,परमा अपने निक्कम्मेपन से एक-दूसरे को देखते हुए हाथ मल रहे थे।

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कहानीकार-
अशोक पटेल "आशु"
व्याख्याता-हिंदी,तुस्मा(छ ग)
9827874578

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