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फर्ज

फर्ज

 कविता - फर्ज
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हो सर्दी गर्मी बरसात, कमाने  जाना पड़ता है
बाधाएं घेर ले कदमों को, पग बढ़ाना पड़ता है
दुख बेशक परेशान कर हमे, मुस्काना पड़ता है
परिवार की जिम्मेदारी, फर्ज निभाना  पड़ता है।

जिन्दगी कई करवटें बदल लें, आसूँ बहाने को
रास्ते न भटके कही, ऐसा कुछ करना पड़ता है
कई बार बेवजह किसी को, झुक जाना पड़ता है
ये भी एक संस्कार है, फर्ज निभाना पड़ता है।

माता-पिता की सीख, और बड़ो का आशीर्वाद
प्रेम भावना सभी से, ये करे जीवन को आबाद
जीवन जीने के लिए,सब बादे निभाना पड़ता है
समाज मे अस्तित्व बचने,फर्ज निभाना पड़ता है

दूर हो मंजिल फिर भी, कदम बढ़ाना पड़ता है।
चूर हो थकान में फिर भी,कर को उठाना पड़ता है
जालिम बड़ी है पेट की आग, इसे बुझाना पड़ता है
परिवार है साँसें सबकी , फर्ज निभाना  पड़ता है।


लेखक
श्याम कुमार कोलारे
सामाजिक कार्यकर्ता, छिन्दवाड़ा (म.प्र.)
मोबाइल 9893573770

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