-->
समाज : आंबेडकर का सपना

समाज : आंबेडकर का सपना

समाज : आंबेडकर का सपना

1950 के दशक में बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार देने की बात करना आसान नहीं था। जो भी यह बात करता उसके विरुद्ध आम जनता का जाना स्वाभाविक था।




आंबेडकर का विचार ईमानदारी का दूसरा पर्याय है। उन्होंने गलत को गलत और सही को सही कहा चाहे उसका अंजाम जो भी हो।
आम धारणा यह है कि सच परेशान जरूर करता है लेकिन जीत भी उसी की होती है। केंद्र सरकार के द्वारा आंबेडकर कि 125वीं जयंती मनाई जा रही है। आंबेडकर का विचार ईमानदारी का दूसरा पर्याय है। उन्होंने गलत को गलत और सही को सही कहा चाहे उसका अंजाम जो भी हो। नारी मुक्ति कि बात हो, जातिविहीन समाज कि स्थापना या अंधविश्वास, रंचमात्र समझौता नहीं किया।
बौद्ध धर्म में जाते समय भी मानव कल्याण कि बात की। जहां धर्म की बात हो, वहां स्वर्ग और नरक के बारे में चर्चा न हो, दुनिया में अपवाद ही हो सकता है। बौद्धिक ईमानदारी परेशान ही नहीं करती बल्कि मंजिल तक पहुंचने से भी रोकती है, इसीलिए यह कहा जाता है कि हर महानता के पीछे एक बढ़ा अपराध भी छिपा होता है। कोई महान बने और उसके पीछे चालाकी, यथास्थितिवाद, दांवपेच और भोली-भाली जनता कि भावनाओं का इस्तेमाल न हो, यह संभव नहीं है। ज्यादातर महान लोग बिना जनमानस को नाराज किए आगे बढ़े। कुछ लोगों ने प्रसिद्धियां तो बहुत प्राप्त कर लीं लेकिन समाज जहां का तहां ही खड़ा रहा।
1950 के दशक में बेटियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार देने की बात करना आसान नहीं था। जो भी यह बात करता उसके विरुद्ध आम जनता का जाना स्वाभाविक था। नेहरूजी से परामर्श लेकर के आंबेडकरजी ने संसद में हिंदूकोड बिल पेश किया।विधेयक का मूल मकसद था कि बेटियों को पैतृक संपत्ति में बेटों जैसे अधिकार दिए जाएं। इस पर देश में तमाम आलोचनाएं शुरू हुर्इं और इतना दबाव पड़ा कि कांग्रेस का संसद में प्रचंड बहुमत के बावजूद उसे पीछे हटना पड़ा और अंत में विधेयक गिर गया।
अभी तक किसी ऐसी जाति से आवाज नहीं निकली कि वह अपनी जाति के ऊपर गर्व न करे। वह जाति चाहे जितने समाज के नीचे पायदान पर खड़ी हो लेकिन जाति के ऊपर गर्व जरूर करती है। आंबेडकर ने किसी की परवाह किए बिना जाति तोड़ने के लिए संघर्ष किया। 12 दिसंबर 1935 में जाति-पांति तोरक मंडल लाहौर से पत्र मिला, जिसमें बाबा साहब को अध्यक्ष बनाने का आमंत्रण था। आंबेडकर ने सोचा कि यह समाज सुधारक सवर्ण हिंदुओं का संगठन है जिसका मात्र उद्देश्य हिंदुओं में जाति प्रथा को समर्थन करना है। पहले तो उन्होंने अध्यक्षता करने के निमंत्रण को स्वीकार नहीं किया , लेकिन आग्रह करने पर स्वीकृति दे दी। यह सम्मेलन ईस्टर पर होना था लेकिन बाद में मई 1936 तक के लिए स्थगित कर दिया गया।
उसके बाद लाहौर में विरोध शुरू हो गया। इस पर मंडल के नेता परमानंद एमएलए पूर्वअध्यक्ष हिंदू महासभा, महात्मा हंसराज, गोकुल चंद नारंग- स्थानीय स्वायत्व शासन मंत्री और राजा नरेंद्रनाथ एमएनसी आदि सभी नेताओं ने मंडल के सचिव संतराम को जाति-पांति तोरक मंडल से अलग कर दिया। मंडल के लोगों ने चाहा की आंबेडकर जो बोलने वाले हैं, उसको लिखित रूप से पहले ही भेज दें।
मंडल का दबाव आंबेडकर पर लगातार बना रहा कि उनका निबंध जातिभेद का बीजनाश, लाहौर में छपे लेकिन आंबेडकर अड़े रहे और उन्होंने उसे मुंबई में ही छपवा दिया। उनके निबंध को देखने के लिए मंडल ने हर भगवान को मुंबई भेजा। और जब उन्होंने उसे पढ़ा तो विचलित हो गए और संशोधन करने के लिए कहा। तमाम तरह के सुझाव दिए गए कि भाषण छोटा कर दें, इतना तीखा न हो लेकिन बाबा साहब अड़े रहे। ऐसा न करने पर जाति-पांति तोरक मंडल ने सम्मेलन ही निरस्त कर दिया।
ज्ञात होना चाहिए कि लाहौर उस समय उत्तर पश्चिम भारत का केंद्र था और मंडल की तरफ से सुझाव था कि अगर आंबेडकर अध्यक्षता के लिए तैयार हो जाएं तो बहुत बड़ा सवर्ण तबका उनको अपना नेतृत्व सौंप देगा। आंबेडकर इस प्रलोभन में नहीं आए और अंत में अपना निबंध जाति भेद के बीजनाश पर अड़े रहे और जो जाकर के बाद में तमाम भाषाओं में अनुवाद हुआ। आंबेडकर को इस सच ने परेशान ही नहीं किया बल्कि आज तक जीत नही हुई। अब तो तथाकथित शूद्र जातियां भी राजनीतिक लाभ लेने के लिए जाति कि पहचान को और मजबूत बनाने के प्रयास में रहती हैं।
बौद्धिक ईमानदारी बनाए रखना अपने को तमाम झंझावातों और परेशानियों में डालना है। इसके लिए बड़ी कीमत चुकानी ही पड़ती है। यह भी निश्चित नहीं है कि उसकी परिणति व्यवहार में हो ही। सत्य बदलाव मानता है। मानव स्वभाव बदलाव के विरुद्ध होता है। इतिहास में तमाम ऐसे लोगों ने बौद्धिक ईमानदारी दिखाई लेकिन जरूरी नहीं कि आगे चलकर लोग अपने जीवन में उसे अवतरित करें। कबीर जैसे संत भी हुए जिन्होंने खूब खरी-खरी कही। लोग किताबों में उनकी बात को सही मानते रहे लेकिन व्यवहार में बहुत कम उतारा। जो सच आंबेडकर को परेशान करता रहा, वह दबे कुचलो को आज भी कर रहा है। कम से कम ये दबे कुचले आंबेडकर के सच के साथ होते तो पूरा नहीं तो आंशिक रूप से इसकी जीत हो गई होती। जरूरी नहीं जो अब तक न हुआ हो तो कल भी न हो। इंतजार है उस दिन का जब जातिविहीन समाज कि स्थापना होगी और भारत दुनिया के विकसित देशों कि कतार में खड़ा होगा।


http://www.jansatta.com/sunday-magazine/society-dream-of-br-ambedkar/84536/

0 Response to "समाज : आंबेडकर का सपना"

Post a Comment

Ads on article

Advertise in articles 1

advertising articles 2

Advertise under the article