एक आरक्षण विरोधी को लिखित जबाव
Wednesday 18 April 2018
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⚡ *एक आरक्षण विरोधी को लिखित जबाव :--*
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"करता हूँ अनुरोध आज मेैं, भारत की सरकार से !
प्रतिभाओं को मत काटो, आरक्षण की तलवार से !!"
*यहाँ से उत्तर काव्य में है :---*
..............................
*एकलव्य* जब-जब पढ़ा स्वयं के सुधार से,
कई *द्रोणों* ने काटे अंगूठे, आरक्षण की तलवार से,
एकलव्य जब बिना द्रोण के, योग्य धनुर्धर यार हुआ,
तब सोचो, द्रोण ने अर्जुन को फिर क्यों आरक्षण दिया ?
सूत पुत्र कह के परशुराम ने कर्ण को जब ठुकराया था,
क्या याद तुझे है,अज्ञानी, क्या कर्ण ने नहीं बताया था ?
*क्या प्रतिभा नहीं थी कर्ण के अंदर ?*
न ही जन्म से, सूत का जाया था ?
फिर क्यों पापी, जातिवादी ने कर्ण को नहीं सिखाया था?
जब आरक्षण की बात चली तो - *शंकराचार्य का पद* आरक्षित मुक्त करो ?
जितने *आलय* हैं "पूरे देश में, आरक्षण से मुक्त करो ?"
चाहे *शिवालय, या देवालय, या मदिरालय, या विश्वविद्यालय,*
बिना आरक्षण नियुक्त करो,
जब बात चली है आरक्षण की, तो
धन, धरती को शून्य करो, जितनी जिसकी संख्या है, उसको उतना नियुक्त करो,
और सारी धरती को,
आरक्षण से मुक्त करो ?
चाहे ज़िन्दा या हो मुर्दा,
सबको अपना काम दो,
एक समान हो, सबकी शिक्षा, अवसर एक समान दो,
फिर देखेंगे, मिलकर यारा,
किसको कितना आरक्षण मिलता है ?
मदिरालय से देवालय तक कितना हिस्सा मिलता है ?
काम का जब बटवारा होगा, कितना द्रव्य जब मिलता है ?
जब बात चली आरक्षण की, तो बिना भेद की शिक्षा देकर देखो,
*बिना जाति* के देश को करके देखो, नाम से *सरनेम* हटाकर देखो,
*गोत्र* हताओ, *नक्षत्र* हटाओ,
*तिलक* हटाओ, *जनेऊ* हटाओ।
फिर देश की *तरक्क़ी* देखो ?
जब बात चली आरक्षण की तो, कितने कर्मचारी विभाग में पूरे देखे ?
उनमें कितने काम चोर देखे ?
कितने ड्यूटी पर सोते देखे ?
कितने भ्रष्टाचारी देखे ?
जब बात चली आरक्षण की तो, भ्रष्टाचारियों को जेल क्यों नहीं ?
बलात्कारियों को सजा क्यों नहीं ?
क्या उसे भी आरक्षण ने रोका है ?
अपनी नाक़ामी छुपाने का यही सही एक मौक़ा है?
जो अक्षम हैं, कहते हैं कि आरक्षण ने मौक़ा नहीं दिया ?
क्या आरक्षण वास्तव में मौक़ा छीनता है ?
या युगों-युगों से पिछड़ों को मौका देता है ?
फिर भी जब आरक्षण की बात चली तो,
खतम करो आरक्षण और दे दो, अवसर समान,
बना दो देश महान,
जितनी जिसकी *भागेदारी,*
उतनी उसकी *हिस्सेदारी* ?
बोलो, बोलो, अब तो बोलो, सोच समझ के अब मुँह खोलो,
*हमने आरक्षण कभी न माँगा ?*
*हमने तो, सम्मान था माँगा।*
बात चली आरक्षण की तो , आओ साथ में, बात करेेंगें, आपस में हम गले मिलेेगें, हाथ-हाथ में डाल रहेंगें ।
आधी रोटी बाँट खायेगें ।
चलो एक हम कहलायेंगे।
आरक्षण की बात चली तो, मंदिर तो भगवान का है, तो उसमें *पुजारी* क्यों?
मंदिर भगवान का है, तो उसमें *ताला* क्यों ?
मंदिर जब भगवान का घर है, तो *पण्डा* एक जाति का क्यों ?
मंदिर जब भगवान का घर तो,
*एक खास* को आरक्षण क्यों ?
बात चली जब आरक्षण की तो, एक भूखा नंगा क्यों ?
और दूजे के आँगन में,
खाने को फिर *दंगा* क्यों ?
एक-एक प्रश्न पर *बवाला* क्यों ?
अब भी समझो
इंसानों को *इंसान*,
या कहलाना बंद करो
*अपने को इंसान*,
क्योंकि, कुत्ते को छोड़ कर,
*गाय, गाय* को प्यार करती है, ( पशु है ),
*सांप, सांप* को प्यार करता है, ( कीड़ा है ),
*मछली, मछ्ली* के साथ रहती है, (जलचर है )।
*चील, कौए, बाज, कोयल* सब आपस में प्यारे हैं, ( सब पक्षी हैं )।
फिर *इंसान को इंसान से इतनी नफ़रत* क्यों ?
बात चली अारक्षण की तो, क्यों इंसान, इंसान से कतरा रहा है,
आरक्षण का रोना, रोकर गा रहा है ?
यदि वह एक आरक्षण से दो वक़्त का खाना का रहा है ? तो तुम्हें रोना क्यों आ रहा है ?
तो सुनो, *मेरा एक सुझाव भी है* :-
यदि है, फिर भी है *तक़लीफ़* तो तुम भी चुनो :
*"जो कुछ मेरे पास है, जाति, नाम, काम, धाम, मान,*
*सब मुझसे ले लो,*
*मैं तैयार हूँ- और तुम तैयार हो जाओ,*
*जो कुछ तुम्हारे पास है वो मेरा आज से,*
*जो कुछ मेरे पास है, वह आज से सब कुछ तुम्हारा है,*
*जाति, नाम, मान, काम, धाम ?*
*बोलो हो तैयार,*
*आओ मैदान में यार ।*
फिर ये ही कहना मित्र मेरे, ये तुम गा-गाकर,
प्रतिभाओं को मत काटो,
आरक्षण की तलवार से,
करता हूँ अनुरोध आज मैं, भारत की सरकार से ।
हम ज़िन्दा हैं,
क्योंकि *हम कामग़र* हैं।
तुम क्या करोगे,
क्या हमारी तरह पसीना बहाओगे ?
या *तिलकधारियों* की तरह,
भिक्षाटन पर जाओगे ?
अब तो बताओ, सच-सच यार, समस्या, आरक्षण है, या *जातिवाद* ?
तुम जाति ख़त्म करो,
आरक्षण *अपने आप ख़त्म* हो जायेगा।
मेरा मानना है तब *भारत स्वर्ग* बन जायेगा,
फिर यहाँ कोई लाचार नज़र नहीं आएगा,
नहीं होगा यहाँ आरक्षण, न कोई रोता नज़र आएगा,
पुरे देश में, *शिष्टाचार* नज़र आएगा !!
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"करता हूँ अनुरोध आज मेैं, भारत की सरकार से !
प्रतिभाओं को मत काटो, आरक्षण की तलवार से !!"
*यहाँ से उत्तर काव्य में है :---*
..............................
*एकलव्य* जब-जब पढ़ा स्वयं के सुधार से,
कई *द्रोणों* ने काटे अंगूठे, आरक्षण की तलवार से,
एकलव्य जब बिना द्रोण के, योग्य धनुर्धर यार हुआ,
तब सोचो, द्रोण ने अर्जुन को फिर क्यों आरक्षण दिया ?
सूत पुत्र कह के परशुराम ने कर्ण को जब ठुकराया था,
क्या याद तुझे है,अज्ञानी, क्या कर्ण ने नहीं बताया था ?
*क्या प्रतिभा नहीं थी कर्ण के अंदर ?*
न ही जन्म से, सूत का जाया था ?
फिर क्यों पापी, जातिवादी ने कर्ण को नहीं सिखाया था?
जब आरक्षण की बात चली तो - *शंकराचार्य का पद* आरक्षित मुक्त करो ?
जितने *आलय* हैं "पूरे देश में, आरक्षण से मुक्त करो ?"
चाहे *शिवालय, या देवालय, या मदिरालय, या विश्वविद्यालय,*
बिना आरक्षण नियुक्त करो,
जब बात चली है आरक्षण की, तो
धन, धरती को शून्य करो, जितनी जिसकी संख्या है, उसको उतना नियुक्त करो,
और सारी धरती को,
आरक्षण से मुक्त करो ?
चाहे ज़िन्दा या हो मुर्दा,
सबको अपना काम दो,
एक समान हो, सबकी शिक्षा, अवसर एक समान दो,
फिर देखेंगे, मिलकर यारा,
किसको कितना आरक्षण मिलता है ?
मदिरालय से देवालय तक कितना हिस्सा मिलता है ?
काम का जब बटवारा होगा, कितना द्रव्य जब मिलता है ?
जब बात चली आरक्षण की, तो बिना भेद की शिक्षा देकर देखो,
*बिना जाति* के देश को करके देखो, नाम से *सरनेम* हटाकर देखो,
*गोत्र* हताओ, *नक्षत्र* हटाओ,
*तिलक* हटाओ, *जनेऊ* हटाओ।
फिर देश की *तरक्क़ी* देखो ?
जब बात चली आरक्षण की तो, कितने कर्मचारी विभाग में पूरे देखे ?
उनमें कितने काम चोर देखे ?
कितने ड्यूटी पर सोते देखे ?
कितने भ्रष्टाचारी देखे ?
जब बात चली आरक्षण की तो, भ्रष्टाचारियों को जेल क्यों नहीं ?
बलात्कारियों को सजा क्यों नहीं ?
क्या उसे भी आरक्षण ने रोका है ?
अपनी नाक़ामी छुपाने का यही सही एक मौक़ा है?
जो अक्षम हैं, कहते हैं कि आरक्षण ने मौक़ा नहीं दिया ?
क्या आरक्षण वास्तव में मौक़ा छीनता है ?
या युगों-युगों से पिछड़ों को मौका देता है ?
फिर भी जब आरक्षण की बात चली तो,
खतम करो आरक्षण और दे दो, अवसर समान,
बना दो देश महान,
जितनी जिसकी *भागेदारी,*
उतनी उसकी *हिस्सेदारी* ?
बोलो, बोलो, अब तो बोलो, सोच समझ के अब मुँह खोलो,
*हमने आरक्षण कभी न माँगा ?*
*हमने तो, सम्मान था माँगा।*
बात चली आरक्षण की तो , आओ साथ में, बात करेेंगें, आपस में हम गले मिलेेगें, हाथ-हाथ में डाल रहेंगें ।
आधी रोटी बाँट खायेगें ।
चलो एक हम कहलायेंगे।
आरक्षण की बात चली तो, मंदिर तो भगवान का है, तो उसमें *पुजारी* क्यों?
मंदिर भगवान का है, तो उसमें *ताला* क्यों ?
मंदिर जब भगवान का घर है, तो *पण्डा* एक जाति का क्यों ?
मंदिर जब भगवान का घर तो,
*एक खास* को आरक्षण क्यों ?
बात चली जब आरक्षण की तो, एक भूखा नंगा क्यों ?
और दूजे के आँगन में,
खाने को फिर *दंगा* क्यों ?
एक-एक प्रश्न पर *बवाला* क्यों ?
अब भी समझो
इंसानों को *इंसान*,
या कहलाना बंद करो
*अपने को इंसान*,
क्योंकि, कुत्ते को छोड़ कर,
*गाय, गाय* को प्यार करती है, ( पशु है ),
*सांप, सांप* को प्यार करता है, ( कीड़ा है ),
*मछली, मछ्ली* के साथ रहती है, (जलचर है )।
*चील, कौए, बाज, कोयल* सब आपस में प्यारे हैं, ( सब पक्षी हैं )।
फिर *इंसान को इंसान से इतनी नफ़रत* क्यों ?
बात चली अारक्षण की तो, क्यों इंसान, इंसान से कतरा रहा है,
आरक्षण का रोना, रोकर गा रहा है ?
यदि वह एक आरक्षण से दो वक़्त का खाना का रहा है ? तो तुम्हें रोना क्यों आ रहा है ?
तो सुनो, *मेरा एक सुझाव भी है* :-
यदि है, फिर भी है *तक़लीफ़* तो तुम भी चुनो :
*"जो कुछ मेरे पास है, जाति, नाम, काम, धाम, मान,*
*सब मुझसे ले लो,*
*मैं तैयार हूँ- और तुम तैयार हो जाओ,*
*जो कुछ तुम्हारे पास है वो मेरा आज से,*
*जो कुछ मेरे पास है, वह आज से सब कुछ तुम्हारा है,*
*जाति, नाम, मान, काम, धाम ?*
*बोलो हो तैयार,*
*आओ मैदान में यार ।*
फिर ये ही कहना मित्र मेरे, ये तुम गा-गाकर,
प्रतिभाओं को मत काटो,
आरक्षण की तलवार से,
करता हूँ अनुरोध आज मैं, भारत की सरकार से ।
हम ज़िन्दा हैं,
क्योंकि *हम कामग़र* हैं।
तुम क्या करोगे,
क्या हमारी तरह पसीना बहाओगे ?
या *तिलकधारियों* की तरह,
भिक्षाटन पर जाओगे ?
अब तो बताओ, सच-सच यार, समस्या, आरक्षण है, या *जातिवाद* ?
तुम जाति ख़त्म करो,
आरक्षण *अपने आप ख़त्म* हो जायेगा।
मेरा मानना है तब *भारत स्वर्ग* बन जायेगा,
फिर यहाँ कोई लाचार नज़र नहीं आएगा,
नहीं होगा यहाँ आरक्षण, न कोई रोता नज़र आएगा,
पुरे देश में, *शिष्टाचार* नज़र आएगा !!
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