*गरीबी के दुष्चक्र में दलित -पिछड़े, सरकारी योजनाएं तथा आकड़े गरीब बनाए रखने का धंधा तो नही। सत्य है कि आरक्षण राष्ट् निर्माण की प्रक्रिया तो फिर आर्थिक आधार पर आरक्षण की हिमायत क्यों* ❓
Saturday 12 January 2019
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डाँ. भीमराव अंबेडकर ने चार वर्ण व्यवस्था को व्यक्ति व समाज के समग्र विकास में सबसे बड़ा बाधक माना हैं। उन्होंने कहा कि जन्म आधारित जाति व्यवस्था किसी की व्यक्तिगत क्षमता के विकास में सहायक नहीं है, जिसके चलते अंततः समाज की उत्पादकता प्रभावित होती हैं। उन्होंने कहां कि समाज की गतिशीलता में जाति रोड़ा हैं। यह सामाजिक वर्गभेद पैदा करती हैं। उनका कहना था कि हर इंसान को अपना पेशा अपनी योग्यता के हिसाब से चुनने की आजादी हो, जाति के आधार पर पेशा के विभाजन होने से दलितों और निचली जातियों के हिस्से में छोटे-छोटे काम आए। जिससे उनकी आय भी कम रही। साफ है कि कम आमदनी में उनका जीवन स्तर नहीं सुधर सकता हैं। उनकी आय का अधिकांश हिस्सा भोजन पर ही खर्च हो जाता हैं। आधुनिक नवउदारवाद के दौर में महंगाई की जो स्थिति है, उसमें दलितों और पिछड़ी जातियों को दो वक्त की रोटी जुटाने में भी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा हैं। इसलिए निचली जातियां शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च नहीं कर पाती हैं। जिससे वह विकास की मूख्य धारा में शामिल नहीं हो पाती हैं। दलितों-पिछड़ों के पीढ़ी दर पीढ़ी गरीबी के दुष्चक्र में फंसे होने की वजह भी जाति का अर्थशास्त्र ही हैं। बाबासाहेब अंबेडकर मानते थे कि सामाजिक लोकतंत्र के अभाव के कारण ही जाति व्यवस्था को बनाये रखने के लिए कम गुनहगार नहीं हैं। सामाजिक लोकतंत्र राजनीति लोकतंत्र से अलग हैं। आर्थिक आधार पर देखें तो एक वर्ग ऐसा है, जिसके पास अकूत धन है और दूसरा बड़ा वर्ग ऐसा है, जिसके पास दो जून रोटी के भी लाले हैं। सरकार के स्तर पर विषमता की लगातार अनदेखी राजनीति लोकतंत्र को खतरे में डाल देगी। आज देश इस अनदेखी का परिणाम भुगत रहा हैं।
डाँ. अंबेडकर चाहते थे कि दलित-पिछड़ी जातियां गरीबी के दुष्चक्र से बाहर निकले और इसके लिए सरकार के स्तर पर ईमानदारी से प्रयास हो। इसलिए उन्होंने राज्य सरकार को वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर बनाने की बात कही थी। लेकिन आजादी के बाद से ही जैसे राज्य सरकिरों ने ठान लिया कि वह केन्द्र के भरोसे ही रहेंगी। केन्द्र सरकार ने भी राज्यों को आत्मनिर्भर बनाने के एजेंडे पर काम नहीं किया। इसके पीछे वजह यह हो सकती है कि केन्द्र की मंशा ही नहीं हो कि वह राज्यों को आत्मनिर्भर बनाए, वह अपने सभी वित्तीय अधिकार अपने पास रखना चाहता हो, ताकि राज्यों को अपने इशारे पर नचा सके। इसका नतीजा है कि आज भी राज्य सरकारें अपने खर्चे पूरा करने के लिए केन्द्र के अनुदान पर निर्भर हैं। चूंकि जिस दौर में बाबासाहेब अपनी बात कह रहे थे, उस समय देश भर में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। हो सकता है कि कांग्रेस सत्ता के विकेन्द्रीकरण के डर से डाँ. अंबेडकर की बात पर अमल को जरूरी नहीं समझ रही हो, लेकिन 90 के दशक के बाद सामाजिक न्याय के नाम पर दलितों और पिछड़ी जातियों की राजनीति करने वाले दलों ने भी अंबेडकर के विचार पर अमल नहीं किया, यह कम अचरज की बात नहीं है, चाहे मायावती हो, मुलायम सिंह यादव हो, एम. करूणानिधि हो, जयललिता हो, चंद्रबाबू नायडू हो, लालू प्रसाद यादव हो या नीतिश कुमार हो, सभी की राजनीति जातियों के ईर्द-गिर्द है, लेकिन किसी ने भी दलितों-पिछड़ों की खुशहाली के लिए डाँ. अंबेडकर की आर्थिक नीतियों पर काम नहीं किया। सभी की सरकारे केंद्र की नीतियों का ही पालन करती रहीं। देश के राजनीतिक इतिहास में चौंकाने वाली बात यह है कि पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु ने 32 साल शासन किया और उनकी पार्टी की विचारधारा सर्वहारा के विकास के लिए दुनिया की श्रेष्ठ आर्थिक विचारधारा मानी जाती है, लेकिन बसु ने गरीबी दूर करने की दिशा में इसलिए उल्लेखनीय काम नहीं किया, क्योंकि उन्हें डर था कि गरीब अमीर हो जाएंगे तो उनका वोट बैंक खत्म हो जाएंगा। लालू प्रसाद यादव को भी यही डर था, इसलिए 15 साल के शासन में उन्होंने बिहार में विकास नहीं होने दिया। जब एक बार बिहार के एक गाँव में एक दलित ने उस समय के सीएम लालू प्रसाद यादव से कहा था कि *साहब हमारे गाँव में रोड़ नहीं हैं, तो हाजिर जवाबी के लिए ख्यात लालू ने तपाक से कहा था कि तोहार के पास मोटरसाइकिल है क्या, तो दलित का जबाब था नही, तो फिर लालू ने कहा तब तोहरा के रोड़ से का मतलब?* इस वाकये का प्रसारण सभी चैनलों पर मजाकिया लहजे में प्रसाशरण किया गया था। वोट बैंक का यही डर भी मायावती को भी हैं। वे तीन बार देश के सबसे बड़े लोकतांत्रिक हिस्सेदारी के प्रदेश की सीएम बनी हैं। चाहती तो डाँ. अंबेडकर के आर्थिक विचारों पर अमल कर दलितों को आत्म निर्भर बना सकती थी, अगर वो ऐसा करती तो इससे दलितों औरपिछड़े समाज का सबसे अधिक भला होता।
अंबेडकर जानते थे कि गरीबों में सबसे अधिक संख्या दलित एवं पिछडी़ जातियों की हैं। सवर्णों की संख्या कम हैं। फिर भी वे चाहते थे कि बिना जातिगत भेदभाव के सभी जातियों केगरीबों को आत्मनिर्भर बनाया जाय। गरीबी मिटाने की दिशा में उनकी सोच उस समय के सभी नेताओं से एक कदम आगे थी। उनका विचार था कि हर गरीब परिवार को उसकी क्षमता के आधार पर सरकार नियमित आय का स्त्रोत उपलब्ध कराए। उनका मानना था कि हर गरीब परिवार को आमदनी का नियमित स्त्रोत उपलब्ध करा देने से कुछ सालों बाद सरकार को गरीबी उन्मूलन के नाम पर किसी प्रकार की योजना चलाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। वे मानते थे कि जब गरीबों के पास आय का स्थाई स्त्रोत होगा तो वह स्वतः ही अपने बच्चों की पढ़ाई और परिवार के स्वास्थ्य पर खर्च करने में सक्षम होगा। वे चाहते थे कि गरीब परिवारों को आत्मनिर्भर बनाने का काम सरकार करे। लेकिन किसी सरकार ने उनकी बातों पर अमल नहीं किया। दलितों और पिछड़ी जातियों को किसी ने भी वोट बैंक से ज्यादा नहीं समझा। दलितों को छलने में दलित और पिछड़ों की राजनीति करने वाली पार्टियां भी उतनी ही जिम्मेदार है, जितनी कांग्रेस-भाजपा और वामदल सरीखी पार्टियां। *जातिवादी पार्टीयों के लिए यह बात तीखी लग सकती है, लेकिन केवल सवर्णों को कोस कर और दलित जातियों के पिछड़ेपन के लिए सवर्ण जातियों को जिम्मेदार ठहरा कर अपने कर्त्तव्यों से मुख नहीं मोड़ा जा सकता हैं।* सवर्ण जातियां तो कम हैं, जबकि सबसे अधिक दलित और पिछड़ी जातियां हैं। सवर्गों को छोड़ भी दिया जाये तो बाकी जातियों में एकजुटता क्यों नहीं है❓क्या किसी नेता या दल ने इन जातियों को एक करने का प्रयास किया हैं❓ *सच कड़वा ही होता हैं। दलित-पिछड़े लेखक-चिंतक भी सवर्णों को कोस कर अपने कर्त्तव्य का इतिश्री कर लेते हैं।*
शिक्षा से गरीबी का सीधा वास्ता हैं। शिक्षा से ही गरीबी दूर हो सकती हैं। दलित-पिछड़ी जातियों में सबसे अधिक अशिक्षा है, इसलिए वह गरीब भी हैं। ऐसे में इनके नाम पर सरकार बनाने वाली पार्टियों की जिम्मेदारी नहीं बनती है कि वह दलितों-पिछड़ों की शिक्षा का बीड़ा उठाए, लेकिन किसी ने भी उदाहरण पेश नहीं किया हैं। मायावती, मुलायम, लालू, नीतीश और अखलेश चाहते तो पब्लिक स्कूल की तर्ज पर अपने-अपने प्रदेश में अंबेडकर, रैदास, सावत्रीबाई फूले या बुध्द पब्लिक स्कूल खोलते, जिनका संचालन उनकी पार्टियों के हाथ में होता और सरकारी अनुदान पर इसे चलाया जाता। इन स्कूलों में कम खर्च या मुक्त में गरीबों को अच्छी शिक्षा दी जाती। साथ ही इनकी सरकारें सरकारी स्कूलों की दशा सुधारती। आज सरकारी स्कूलों में सबसे अधिक दलितों-पिछड़ों के बच्चे ही पढ़ रहे हैं। यह बात इन नेताओं को भी मालूम हैं। वे अपने बच्चों को विदेशों में अच्छी तालीम दिलवाते हैं और जिनके वोट पर सरकार में मलाई खाते हैं, उनके बच्चों के लिए कुछ भी करने को तैयार नहीं हैं। फिर इनकी मंशा पर शक करना लाजिमी हैं। इन्हें लगता है कि दलित-पिछड़े पढ़-लिखे जाएंगे तो वोट कौन देगा। जबकि यह सोच सही नहीं है, पढ़े लिखे लोग ओर बेहतर चुनाव करेंगे। अशिक्षा का संजाल ही है कि अधिसंख्यक दलित-पिछड़े गरीबी के दुष्चक्र में फंसे हैं। *महंगाई, बेरोजगारी इसमें आग लगा रही हैं।* अर्थशास्त्र में गरीबी दुष्चक्र का सिध्दान्त हैं। यदि डाँ. अंबेडकर के आर्थिक सिध्दांत पर अमल किया गया होता और अशिक्षा को खत्म करने पर जोर दिया गया होता, तो आज दलित-पिछड़ी जातियों की अधिकांश आबादी गरीबी के दुष्चक्र में नहीं फंसी होती।
*केन्द्र सरकारों का दोगलापन देखिए कि गरीबों को जिंदा रखने के लिए महानरेगा, अंत्योदय, इंदिरा आवास, स्वच्छ भारत अभियान, पीडीएस जैसी योजनाओं पर वह करोड़ो खर्च कर रही हैं, लेकिन अंबेडकर के सिध्दांतों पर चल कर गरीबों को आत्मनिर्भर बनाने की दशा में कोई कदम नहीं उठा रही हैं। ये सभी योजनाएं गरीबों को महज जिंदा रखने के लिए हैं, ताकि वह वोट दे सकें।*
गरीबों के नाम पर सरकारी योजनाओं का धंधा पहली पंचवर्षीय योजना से चल रहा हैं। आठवी पंचवर्षीय योजना तक सरकार के प्रशासनिक व्यय के बाद आम बजट का सबसे अधिक हिस्सा गरीबी उन्मूलन के नाम से सामाजिक योजनाओं पर खर्च किया गया। 90 के दशक के बाद नवउदारवादी आर्थिक नीति अपनाने के पश्चात केंद्र सरकार ने गरीबों पर खर्च कम करने के उपायों पर चर्चा जरूर की, लेकिन वोट बैंक दरकने के डर से व्यापक पैमाने पर बजट घटाने की हिम्मत नहीं जुटा सकी और सब्सिडी घटाने के रूप में आंशिक कमी ही कर पाई। अगर भारत सरकार के इतिहास पर नजर डालें तो गरीबी उन्मूलन के लिए पचास से अधिक नामों से योजनाएं चलाई गई, इसके लिए लाखों करोड़ों रूपये खर्च किये गए, दो लाख करोड़ रूपये से ज्यादा तो केवल मनरेगा पर खर्च किया जा चुका हैं। ऐसे ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली ( पीडीएस ), रेशम कीट पालन, चरखाघर, खादी योजना, मुर्गी-मत्स्य पालन, पशु पालन, बकरी-सुअर पालन, अंत्योदय, अन्नपूर्णा, इंदिरा आवास, प्रधानमंत्री स्वरोजगार योजना, दो रूपये किलो चावल, एक रूपये किलो चावल, दो रूपये किलो गेहूं जैसी अलग-अलग नामों से पचास से ज्यादा योजनाएं केंद्र और राज्य सरकारों ने चलाईं। हर पंचवर्षीय योजना में गरीबी उन
मूलन का बजट बढ़ता गया। आज के रूपये के मूल्य के हिसाब से देखें तो अब तक औसतन 80 लाख करोड़ रूपये से ज्यादा गरीबी उन्मूलन पर गर्च किया जा चुका हैं। लेकिन गरीबी नहीं हटी, गरीबी कम नहीं हुई। सवाल उठता है क्यों❓
हां, शहर में 32 रूपये और गाँव में 26 रूपये रोजाना खर्चने वालो को अमीर ठहरा कर आंकड़ों में गरीबी कम करने की बेशर्मी जरूर दिखाई गई। हाल ही में सवर्णों को 10% आरक्षण का मसौदा तैयार करने में 8 लाख वार्षिक आय वाले को सवर्ण गरीब बनाया गया जबकि 2 लाख से ऊपर वार्षिक आय वाले दलित को आर्थिक आधार पर सक्षम मानकर छात्रवृत्ति नहीं दी जाती हैं। *भैस को चाहिए कांकड़े, सरकार को चाहे झूठे आंकड़े* पर यह सच है कि किसी भी सरकार की मंशा ही नहीं है कि गरीबी हटे, इसलिए हटेगी कैसे❓सबकी इच्छा इस नासूर को बनाए रखने की हैं। वजह वही है, गरीब नहीं रहेंगे तो योजनाएं किसके लिए बनेंगी और भ्रष्टाचार की मलाई कैसे मिलेगी। गरीबों के नाम चल रही योजनाओं में किस कदर भ्रष्टाचार है, यह किसी से छिपी नहीं है और इसके लिए यहां शब्द खर्च करने की जरूरत नहीं हैं। तो क्या यही भ्रष्टाचार है, जिसे सरकारी तंत्र बनाए रखना चाहता हैं। गरीबी उन्मूलन के लिए बाबासाहेब अंबेडकर ने जितने उपाय बताए थे, उन्हें आजमाया गया होता तो लाखो करोड़ों रूपये खर्च नहीं हुए होते और हम गरीबी उन्मूलन की कगार पर होते। डाँ. अंबेडकर गरीबी मिटाने के लिए आमदनी के स्थाई स्त्रोत के निर्माण पर जोर दे रहे थे। इससे हम सरकारी सहारे से स्थाई पूंजी का निर्माण करते। लेकिन सरकारें क्या कर रही है ❓इंदिरा आवास की बात करें तो कोई बताये 55 हजार रूपये में कौन सा घर बन जाएगा❓इस राशि में लाभार्थी के हाथ में 40 हजार रूपये ही आते हैं। 15 हजार रूपये भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं। ऐसे ही अन्य सभी योजनाओं में लाभार्थी के हिस्से आधी रकम ही आती हैं। सरकार की ऐसी योजना जिससे पूंजी निर्माण हो रहा हो। चाहे पीडीएस हो, अंत्योदय-अन्नपूर्णा हो, एक रूपये-दो रूपये किलो अनाज हो सभी गरीबों को जिंदा रखने के लिए है, उनको आत्मनिर्भर बनाने के लिए नहीं। जबकि बाबासाहेब अंबेडकर कहते थे कि हर परिवार के पास आय का अपना जरिया होगा तो वह अपने बच्चों की शिक्षा और परिवार के स्वास्थ्य पर खर्च करने में सक्षम होगा, जिससे उसे गरीबी के दुष्चक्र से निकलने में मदद मिलेगी। इसका लाभ यह होता कि जब हर परिवार के पास आमदनी का अपना स्त्रोत होता, तो पूंजी निर्माण भी होता रहता, सरकारों पर गरीबों की निर्भरता कम होती जाती और हर आने वाले साल में सरकार को अपनी सब्सिडी में कमी करते रहने का मौका मिलता।
इस क्रम में एक समय ऐसा होता कि सरकारों को गरीबी उन्मूलन के नाम पर योजना ही नहीं बनानी पड़ती और सच पूछिए तो सरकारें और राजनीति पार्टियां यही नहीं चाहती थी। वरना भ्रष्टाचार का क्या होता❓वोट बैंक का क्या होता❓आज भी अगर सभी सामाजिक योजनाओं को विलय कर केवल रोजगार सृजन योजना चलाई जाय, तो दस से 15 साल में देश से गरीबी मिट जाएगी। लेकिन सरकारों की रूचि खैरात बांटने में हैं। एक रूपये चावल लो, मुक्त लैपटाप लो, 100रूपये में मोबाइल आदि-आदि इस तरह की योजनाएं गरीब बनाय रखने का गोरखधंधा हैं। यानी 70 सालों से अधिक की आजादी में सरकारों ने जनता को इतना गरीब बना दिया कि 32 रूपये कमाने वाले शहरी दलित आदमी को अमीर बना दिया ओर 8 लाख वार्षिक आय वाले को सवर्ण गरीब बना दिया गया। इस गरीब जनता में सबसे अधिक दलित-पिछड़े हैं और सबसे बड़ा वोट बैंक भी यही वह स्थिति है जो दलितों के स्वाभिमान पर सीधा हमला हैं। यहां साफ है कि सरकारों को सुधारने का एक ही तरीका है कि दलित-गरीब इस खैराती योजनाओं का बहिष्कार कर दे। केवल रोजगार सृजन वाली योजनाओं का ही लाभ लें।
*सब्सिडि का खेल*
इसी तरह सब्सिडि का खेल चल रहा हैं। खाद पर सब्सिडि सीधे किसान को नहीं बल्कि फर्टिलाइजर कम्पनियों को मिलती हैं। इसी तरह डीजल, रसोई गैस और केरोसीन तेल की सब्सिडी भी कम्पनियों को ही दी जाती हैं। अगर हर कंपनियों को मुक्त बाजार में कारोबार के लिए छोड़ दिया जाए, जैसा टेलीकाँम सेक्टर में किया गया, तो कम सब्सिडी देकर सरकार जरूरतमदों को अधिक लाभ दे पाएगी। अभी यह हो रहा है कि पांच रूपये लागत वाली खाद का दाम सरकार को 15 रूपये बताया जाता है और उस पर पांच रूपये सब्सिडी लेकर लाभार्थियों को दस रूपये में बेचा जाता हैं।आज सब्सिडी एक राजनीतिक एजेंड़ा बन गई हैं। अगर सरकार सब्सिडी खत्म कर दे और प्राइस नियमन कर दे तो गरीबों को ठगने का धंधा भी बंद हो जाएगा। प्राइस नियमन का मतलब यह है कि किसी भी वस्तु की कीमत सरकार तय करेगी, कम्पनियां नहीं। इससे मुनाफाखोरी, जमाखोरी आदि बंद होगी और बाजार में कम्पनियों-व्यापारियों की मोनोपोलो खत्म हो जाएगी। इससे महंगाई अपने-आप कम होने लगेगी। इसका सबसे अधिक लाभ सब्सिडी खत्म करने में होगा। पर यह कोई नहीं करना चाहता, वरना भ्रष्टाचार का चैनल ही सूख जाएगा।
*अधिकारों का नाटक*
देश में अधिकारो का नाटक चल रहा है। शिक्षा का अधिकार, रोजगार का अधिकार, भोजन का अधिकार आदि की बात सरकारों में की गई। अब स्वास्थ्य का अधिकार, सुरक्षा पाने का अधिकार और न्याय पाने का अधिकार देने की तैयारी हो सकती है। जैसे आठ लाख वार्षिक आय वोलो को सवर्ण गरीब बनाया गया हैं। यह सारे ढ़कोसले तब किए जा रहे है जब पहले से ही संविधान में सब निहित हैं। संविधान का लक्ष्य ही है कि लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना। सरकार का संवैधानिक दायित्व है कि वह जनता को रोटी, रोजी, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय और सूचना उपलब्ध करवाए। लेकिन 70 सालो से अधिक के गणतंत्र में जब सरकारें लोगों को भोजन, वस्त्र, आवास, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा और इंसाफ मुहैया कराने में विफल रहीं तो अब उसी संवैधानिक कर्त्तव्य को अधिकार के जरिये नया करने का प्रहसन कर रही हैं। दरअसल अधिकारों के नाम पर जनता को भरमाया जा रहा हैं। यह संवैधानिक कर्त्तव्यों सरकारों के भागने का तरीका हैं।
अतः आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं हैं। यह वचिंत समाजों के प्रतिनिधित्व के आधार पर अधिकारों को स्थापित कर राष्ट्निर्माण की प्रक्रिया हैं।
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