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एक भीम पुत्र का पीड़ामय संदेश

एक भीम पुत्र का पीड़ामय संदेश


पशु को गोद खिलाने वाले,
मुझको छूने से बचते थे।
मेरी छाया पड जाने पर,
'गोमूत्र का छीँटा' लेते थे।।

              पथ पर पदचिन्ह न शेष रहेँ
              झाडू बाँध निकलना होता था ।
              धरती पर थूक न गिर जाये,
              हाथ सकोरा रखना होता था।।

जान हथेली पर रखकर,
मैँ गहरे कुआँ खोदता था।
चाहे प्यासा ही मर जाऊँ,
कूपजगत ना चढ सकता था।।

             मलमूत्र इकट्ठा करके मैँ,
             सिर पर ढोकर ले जाता था।
             फिकी हुई बासी रोटी,
             बदले मेँ उसके पाता था।।

मन्दिर मैँ खूब बनाता था,
जा सकता चौखट पार नहीँ ।
मूरत गढता मैँ ठोक-ठोक कर,
था पूजा का अधिकार नहीँ।

            अनचाहे भी यदि वेदपाठ,
            कहीँ कान मेरे सुन लेते थे।
           तो मुझे पकडकर कानोँ मेँ,
           पिघला सीसा भर देते थे।।

गर वेदशब्द निकला मुख से
तो जीभ कटानी पड जाती थी।
वेद मंत्र यदि याद किया,
तो जान गँवानी पड जाती थी ।।

          था बेशक मेरा मनुष्य रूप,
          जीवन बदतर था पशुओँ से ।
          खा ठोकर होकर अपमानित,
          मन को धोता था  अँसुओँ से रोज।

फुले पैरियार  ललई ओर साहू,
ने मुझे झिँझोड जगाया था ।
संविधान के निर्माता ने,
इक मार्ग नया दिखाया था।।

           उसी मार्ग पर मजबूती से,
          आगे को कदम बढाया है।
          होकर के शिक्षित और सजग,
          खोया निज गौरव पाया है।।

स्वाभिमान जग जाने से,
स्थिति बदलती जाती है।
मंजिल जो दूर दीखती थी,
लग रहा निकट अब आती है।

          दर से जो दूर भगाते थे,
          दर आकर वोट माँगते हैँ।
          छाया से परे भागते थे,
          वो आज मेरे चरण लागते हैँ।।

वो आज मुझसे पढने आते हैँ,
जो मुझे न पढने देते थे।
अब पानी लेकर रहैँ खडे,
तब कुआँ न चढने देते थे।।

         "बाबा" तेरे उपकारो को,
         मैँ कभी भुला ना पाऊँगा।
         "भीम" जो राह दिखायी है,
         उस पर ही बढता जाऊँगा।।
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        मूलनिवासी विद्यार्थी संघ

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