"मृत्युभोज से जूझता समाज"
Tuesday 18 June 2019
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"मृत्युभोज से जूझता समाज"
साथियो आज की इस पोस्ट को लिखने का उदेश्य समाज मे कई वर्षों से चली आ रही एक ऐसी परम्परा या यूं कहें कि सबसे बड़ी कुरीति जो किसी पारिवारिक सदस्य की मत्यु उपरांत शोक संतप्त परिवार द्वारा दिया जाने वाला भोज जो समाज मे मृत्युभोज के रूप में प्रचलित है। पिछले कुछ दिनों से सामाजिक कार्यक्रमो एवम विभिन्न सोशल मीडिया के मंचो पर मृत्युभोज पर एक सार्थक बहस छिड़ी हुई है जहाँ समाज के सभी वर्गों द्वारा इसके खिलाफ कहा जाता है एवं सब इसके विरोध में खड़े नजर आते है।
लेकिन फिर सोचने वाली बात ये है कि जब किसी कुरीति के खिलाफ समाज मे इतना रोष है तो फिर आखिर ये कई वर्षों से समाज को खोखला क्यों और कैसे किये जा रही है और वे कौन लोग होते है जो इनका समर्थन करते है,,,? तो इसका जवाब है हम,,,!
जी हां! सही पढ़ा आपने ये समाज के हम ही तो लोग होते है जो इसका कई सार्वजनिक मंचो एवम व्यक्तिगत रूप से विरोध तो करते है किंतु जब समय आता है इसे जमीनी रूप से स्वयं पर या समाज पर लागू करने का तो हम इस कुरीति को कम करने के बजाय इसे कई गुना विस्तृत कर लेते है,,,! ये सोचने वाली बात है। आखिर हम क्यों इस कुरीति को एक विस्तृत रूप देने में लगे है,,,? क्यों हम इसका बढ़ चढ़कर आयोजन करने में लगे है,,,!
हा सही है इसे हम एक आयोजन के रूप में ही तो मनाने में लगे है और एक दूसरे से होंडा-होड़ी के चक्कर मे इसे इतना विकृत कर दिया है कि आज इसमे पूरा समाज या यूं कहें पूरा देश, पूरा हिन्दू समाज फस चुका है।
मेने हमेशा से खुद को सामाजिक टिप्पणियों से काफी दूर रखने का प्रयास किया है। मुझे कई बार सामाजिक कार्यो एव परम्परों पर अपनी राय रखने या कोई टिप्पणी करने को कहा जाता है लेकिन कभी किसी परम्परा पर अपनी राय नही रखी क्योंकि सामाजिक विषय जो काफी संवेदनशील और सभी की मन की भावनाओ से झुड़े होते है और इन्ही सामाजिक रीति-रिवाजों एव सामाजिक विषयो पर मेरी अपरिपक्वता के कारण ही में अपने विचार स्पष्ट नही कर पाता हूं। लेकिन अब सामाजिक विषयों पर सीखने की कोशिश कर रहा हूं और आप सभी सामाजिक बन्धुओ से काफी कुछ सीखने को भी मिल रहा है। मेरा मानना है कि सामाजिक कार्यक्रमो में राजनीतक मुद्दो पर चर्चा न होकर सिर्फ सामाजिक स्तर की सार्थक चर्चाएं हो तो ही ये हमारे या किसी भी समाज के लिए हितकर रहता है।
अब जानते है एक आदर्श और सीमित परम्परा आज के समय की सबसे विकृत और समाज को खाई में धकेलने वाली कुरीति कैसे बन गयी,,,,।।।
पुराने समय से तो ऐसा होता रहा था और इस तरह की परंपरा थी कि जिस परिवार में मृत्यु हुई होती है वहाँ 12 दिन के शोक तक भोजन ही नहीं बनता था बल्कि अन्य सामाजिक सदस्य उनके भोजन आदि की व्यवस्था करते हैं। लेकिन आज के समय मे यह रीति शोक संतप्त परिवार पर इन 12 दिनों तक कई प्रकार का आर्थिक बोझ डालने वाली एक कुरीति मात्र बन कर रह गयी है।
आदि काल से तो यह मृतक से संबन्धित भोज होता ही नही था बल्कि किसी घर, समाज या किसी राज्य के मुखिया या राजा की मृत्यु उपरांत 12 दिन के शोक के पश्चात तेरहवें दिन उस मृतक मुखिया का उत्तराधिकारी चुना जाता था। जिसे पगड़ी रस्म या मृतक के उत्तराधिकारी की ताजपोशी या राजा के मृत्यु उपरांत नए राजा का राज्याभिषेक,,,!
यह पगड़ी रस्म या राज्याभिषेक सगे-समन्धियों एव समाज स्तर के लोगों के द्वारा किया जाता है। अर्थात यह है कि नए उत्तराधिकारी को समाज के द्वारा परिवार के मुखिया होने की स्वीकृति होती है।।।।
लेकिन आज ये परम्परा भी परिवार के छोटे बड़े सभी सदस्यों की मृत्यु उपरांत दिखावे मात्र के लिए भी एक विस्तारित रूप देकर शोक संतप्त परिवार आर्थिक बोझ के तले दबता जा रहा है। आज फिर से समाज को इस पर गहन विचार करना होगा कि हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है इस मृत्युभोज जो सिर्फ एक कलंक बन कर रहा गया है इसे किस हद तक सीमित किया जा सकता है।
अब पढ़िए आखिर कैसा होता है मृत्युभोज,,,,???
और यह कैसे बनाया और खाया जाता है। कैसे इसके खिलाफ एक अभियान चलाकर सीमित, आदर्श और सामाजिक कल्याणकारी बनाया जा सकता है,,,।
जिस भोजन को रोते हुए बनाया जाता है,,! जिस भोजन को खाने के लिए रोते हुए बुलाया जाता हैं,,! जिस भोजन को आँसू बहाते हुए खाया जाता हैं उस भोजन को मृत्युभोज कहा जाता है।
जिस परिवार मे विपदा आई हो उसके साथ इस संकट की घड़ी मे जरूरी रूप से खडे़ होना चाहिए और तन, मन और धन से शोक संतप्त परिवार का सहयोग करे और मृतक भोज का बहिस्कार करे,,,।
“कहा जाता है कि भोजन तभी करना चाहिए, जब खिलाने वाले का मन अतिप्रसन्न हो और खाने वाले का मन भी प्रसन्न हो।”
“लेकिन जब खिलाने वाले एवं खाने वालों दोनो के दिल में दर्द हो, वेदना हो तो ऐसी स्थिति में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए।’’
यह तेरहवी संस्कार समाज के चन्द चालाक लोगों के दिमाग की उपज है किसी भी धर्म ग्रन्थ में मृत्युभोज का विधान नहीं है मृत्युभोज खाने वाले की ऊर्जा नष्ट हो जाती है।
अर्थात मृत्युभोज शरीर के लिए ऊर्जावान नहीं है। इसीलिए महापुरुषों ने मृत्युभोज का जोरदार ढंग से विरोध किया है जिस भोजन को बनाने का कृत्य जैसे लकड़ी फाड़ी जाती है तो रोकर, आटा गूँथा जाता तो रोकर एवं पूड़ी बनाई जाती है तो रोकर यानि हर कृत्य आँसुओं से भीगा। यहाँ तक कि खाना खिलाने वाला खाना खिलाता है आंसू बहा कर और खाना खाने वाला भी खाता है आंसू बहा कर।
ऐसे आँसुओं से भीगे निष्कृष्ट भोजन एवं तेरहवीं भेाज का पूर्ण रूपेण बहिष्कार कर समाज को एक सही दिशा देनी चाहिए।
जानवरों से सीखें जिसका साथी बिछुड़ जाने पर वह उस दिन चारा नहीं खाता है जबकि बुद्धीवान मानव एक आदमी की मृत्यु पर हलवा-पूड़ी खाकर शोक मनाने का ढ़ोंग रचता है इससे बढ़कर निन्दनीय कोई दूसरा कृत्य हो ही नहीं सकता।
यदि आप इस बात से सहमत हों, तो आप आज से संकल्प लें कि आप किसी के मृत्युभोज को ग्रहण नहीं करंगे।
समाज के सभी सम्मानित सदस्यों से परम् आग्रह है, कि मृत्युभोज समाज में फैली कुरीति है व समाज के लिये अभिशाप है। इसका जोरदार ढंग से विरोध एवम बहिष्कार करे। इस कुरीति का सामाजिक स्तर पर समाधान कर सीमित किया जाना चाहिए। ताकि यह कुरीति, कुरीति न रहकर एक आदर्श संस्कार हो।
अगर सिर्फ 1 जन,,,,!
मतलब स्वयं यानी हर वह व्यक्ति जो इस समाज मे है और इस सामाजिक कुरीति को एक आदर्श संस्कार बनाना चाहता है वो एक व्यक्ति जो की वो स्वयं है, अपने आप को बदल लें और इस आदर्श कार्य की ओर सच्चे मन से अग्रसर हो जाये तो बहुत कुछ बदलाव हो सकता है।
अगर आपको यह पोस्ट अच्छी, सच्ची और सामाजिक लगे तो इस पोस्ट को अधिक से अधिक शेयर करे ताकि इस अभियान को सार्थक और सफल बनाने में सहयोग हो सके।
लेख श्रोत: मृत्युभोज
संकलन
लेख श्रोत: मृत्युभोज
संकलन
श्याम कुमार कोलारे
युवा प्रकोष्ठ, नुन्हारिया मेहरा समाज, छिंदवाड़ा
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