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बरसों बाद अपनो संग खेलें, बचपन आया याद

बरसों बाद अपनो संग खेलें, बचपन आया याद


बरसों बाद अपनो संग खेलें, बचपन आया याद

वर्तमान का दौर एक वायरस के कारण मानव समाज इतना अस्त व्यस्त हो चुका है कि व्यक्ति अपनी चार दिवारी में कैद हो चुका है और लॉकडाउन के चलते उसे घर मे ही रहने की स्वतंत्रता मिल गई है। क्या कोई व्यक्ति जो। सामान्य दिनचर्या मे पर ब्रेक लगने पर, सभी कामगार आज लगातार पचास  दिन से घर में परिवार के साथ नजर बंद हो गया हो तब तो हर व्यक्ति अपने अपने परिवार के साथ समय को शेयर करने लगे । लॉकडाउन के शुरूवाती दौर में नई नई डिश और कुछ भय युक्त बातों को सदेंह  की नजर से चर्चा का विषय था। इस पारिवारिक सामूहिकता मे पुरानी यादें ताजा होती चली गईं ।

परंतु भौतिकवादी दिनचर्या ने व्यक्ति को अपनो से अलग-थलग कर दिया है । यहां तक कि लोगों को शारीरिक फिटनेस के लिए व्यायाम की आवश्यकता होती है,जिसमें परिश्रम, व्यायाम तथा खेल-कूद से प्रतिरोधक  क्षमता बढ़ाने में  कारगर  सावित होता है।

लेकिन आज सम्पूर्ण मानव समाज अपने तकनिकी डिवाईस(मोबाईल) मे डुबकी लगा रहा है। जोकि एकव्यक्ति को सिर झुकाकर पूरा ध्यान मोबाईल पर केंद्रित करते जिससे वैचारिक खेल से परे होता जा रहा है । ना हंसी और नहीं उल्लास बस मन-ही-मन मुस्कान वो भी एकांत में। परिश्रम युक्त खेल से कोसों तक दूर होते जा रहा है । यही कारण है कि व्यक्ति में विभिन्न तरह की बीमारी जन्म ले रही है।सही मायने मे लोग खेल को महत्व दें तो स्वस्थ्य तन ,शुद्ध मन और तेज दिमाग बना रहता है।आज इन सब की कमी ने स्वास्थ्य पर बुरा असर दिखाई दे रहा है। क्योंकि दैनिक क्रिया में खेल का भी एक विशेष महत्व रहा है। आदी काल से ही लोगों की दैनिक जीवन के काम मे लीन रहता आया  है,उसी आधार पर अपने समय को विभक्त कर लेते है । मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता रोटी,कपड़ा और मकान , इन तीनों के लिए आवश्यक काम अर्थात अपनी योग्यता अनुसार श्रम बेचकर धन एकत्र करना । सुबह होते ही दैनिक काम का समय विभाजन हो जाता है, शेष बचे समय को व्यक्ति मनोरंजन में लगा देता था। परिश्रम करना अनिवार्य माना जाता है। लेकिन इस अनिवार्य काम के साथ साथ लोगों मनोरंजन की आवश्यकता होती है। लेकिन मनोरंजन भी उम्र के अनुसार एक तरफ बड़े और बुजुर्ग धार्मिक सीरीयल रामायण ,महाभारत, पूजा अर्चना,भजन,किरतन ,आदि कर अपना समय बिताने में सफल रहते हैं। बच्चे लोग सिर्फ खाने-पिने के बाद खेलों में मस्त हो जातें हैं।और इतना खेलते हैं कि खाना पीना सब भूल जाते हैं। जैसे-जैसे बच्चे की उम्र बढ़ती है, वैसे-वैसे उनकी जिम्मेदारी भी बढ़ने लगती है।और खेल के स्तर भी बदल जाते हैं।

वक्त ऐसा आया कि घर से बाहर घुमने और खेलने की आजादी नहीं। तब तो अनिवार्य हो चुका है कि इन डोर गेम ही खेले उसमे भी कटौती करके यहां जो  परंपरागत खेलों को महत्व दिया गया वह है, पारिवारिक खेल जहा वर्षों पहले जब हम बच्चे थे बड़े भाई की घुड़सवारी ,कंचा,पत्थर की गोटियां, खास तौर पर रोनी (बेईमानी)खेला हुआ चिटा आदी । ये छोटे-छोटे खेल बड़ी चुनौती बाले होते हैं, यहां पर खेल का शून्य जोड़ का सिद्धांत लागू होता है। हर खिलाड़ी जीत हासिल करना चाहता है, हर बाजी को चतुराई पूर्वक चलना होता है। अपनी बाजी आने से शारिरिक उत्तेजना जन्म  लेती है सफल होने पर मन प्रसन्न होता है। आज घर मे बैठकर इससे अच्छा कोई  खेल नहीं खेला जा सकता है। ये वही दिन है जब हमारे पास किसी तरह के संसाधन नहीं थे । 20 ,25 या 50 पैसा के कंचा,आंगन से 5 कंकड़ ,एक कलम या चाक का टुकड़ा तथा ख़ाके फेंके हुए इमली के बीज । यही हमारी स्पोर्ट्स सामग्री होती थी। अर्थात पैसा नहीं होना भी समस्या थी। आज खेलों के ढेरों समान ख़रीदा जा सकता है, परंतु दुकानें बंद  है और खिलाड़ी समूह मे नही खेल सकते फल स्वरूप बचपन में खेले खेल ने बच्चो संग खेलने मजबूर किया । और खेल याद आया , हकिकत तो यही है कि हम भी बच्चे थे खूब खेला करते थे। वहीं पिता आज बच्चों को खेल कम होम वर्क को ज्यादा महत्व दे रहा है। अंततः इस लॉकडाउन दौरान बच्चों संग खेलने से बचपन की धुंधली तस्वीरें साफ नजर आने लगी है।




लेखक : विनोद झावरे (सहा. प्राध्यापक)
            वामला,छिन्दवाड़ा 

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