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सुनसान पड़ी डगर है

सुनसान पड़ी डगर है


सुनसान पड़ी डगर है









रौनक भरी चमक-दमक, सुनसान पड़ी डगर है

आई जग में एक बारी को- रोना बना कहर है l

सूनी पड़ी बच्चा टोली, नहीं कही कोई ठिटोली,

कब जायेगे मेरे दादा, बैठाके मुझको पिटकोली l l

 


बुजुर्ग हुआ अब नजर बंद है, खुद का बनाये पहरा,

अंत समय अब ये भी देखा, घाव पडा बड़ा ये गहरा l

बंद पड़ी सब चौपाले, अपनों के बीच बनी दीवारे, 

मिलना हुआ दूभर अब , रिश्ता हुआ अब किनारे l l

 

बिकल घडी में आओ सब, रखे एकदूजे का ध्यान,

कोई भूखा न रहे, आँख रहे नित सब का सयान l

जहाँ जरुरत बन पड़े तब , बन जायें उनका सहारा,  

देश-धर्म सम्मान बढ़ाने,  बेडा पार लगाओ किनारा l l

 

कोने वाली वो सायानी, भूखी तो नहीं है आज ,

उसकी भी सुध लेलो, खाता है जो रोटी-प्याज l

जग में आई एक बारी , सुनसान पड़ी डगर है ,

रौनक वो चमक-दमक, आज बनी सब बेघर है l l

 

लेखक/रचनाकार

श्याम कुमार कोलारे

चारगांव प्रहलाद, छिन्दवाड़ा

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