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बच्चो के हाथों में मोबाइल का बढता चलन, कही बचपन खतरे में तो नहीं ?

बच्चो के हाथों में मोबाइल का बढता चलन, कही बचपन खतरे में तो नहीं ?

बच्चो के हाथों में मोबाइल का बढता चलन, कही बचपन खतरे में तो नहीं ? 


गाँव और शहर के बच्चे कुछ साल पहले तक खाली समय में फुटबाल खेलते थे, साइकिल चलाते थे, पार्क में दूसरे बच्चों के साथ मौजमस्ती करते थे, लेकिन अब ज्यादातर समय घर में बीतता है। हमेशा इस ताक में रहते हैं, कि कब मोबाइल मिले और गेम खेलना और कार्टून देंखे। और अब कोरोना काल में जब बच्चों की पढाई भी मोबाइल, कंप्यूटरों से होने लगी है तब से तो बच्चों को जैसे इसकी खुली अनुमति एवं न्यौता मिल गया की अब वह मोबाइल कंप्यूटर का उपयोग करने के पूर्ण अधिकारी बन गए है। पर क्या बच्चो के अभिभावक, माता-पिता इस चीज का पूर्ण ध्यान दे पाते है, कि बच्चों का इस डिजिटल डिवाइस के सामने घंटो बैठने से बाल मन में क्या प्रभाव पर रहा है। मोबाइल का ज्यादा प्रयोग बच्चों की लाइफस्टाइल डिसआर्डर हो जाता है, जिसमें मोटापा बढ़ना, भूख कम लगना, चिड़चिड़ा होना आदि शामिल हैं। बच्चों में इस सब बीमारियों के आने के जिम्मेदार माता-पिता खुद हैं। मोबाइल लत से भूख कम लगना, चिड़चिड़पान, नींद का कम आना, झगड़ालू, किसी चीज में मन न लगना, गुस्सा आना आदि लक्षण देखे जा सकते है। भोपाल निवासी भाग्यश्री एवं भव्या की माँ पुष्पा बुनकर कहती है कि, "बच्चे रोजाना मोबाइल चलाने की मांग करते है, मोबाइल न दो तो रोना शुरु कर देते हैं। खाना तक नहीं खाते। मोबाइल में कभी कार्टून देखते हैं तो कभी यूट्यूब पर वहीं मारपीट वाले वीडियो देखते रहते हैं। मुझे समझ नहीं आ रहा है कैसे इनकी ये आदत छुड़वाऊं।" चिकित्सको के अनुसार मोबाइल के ज्यादा प्रयोग से बच्चों में सबसे ज्यादा मानसिक बीमारियों की समस्या देखने को मिलती है। वे मोबाइल को आंखों के बहुत पास रखकर देखते हैं तो आंखों पर असर पड़ता है। उनकी पास और दूर दोनों की दृष्टि कमजोर पड़ती है। इसके साथ क्योंकि मोबाइल का ज्यादा प्रयोग करने वाले बच्चे बाहर खेलने कूदने नहीं जाते हैं तो उनमें मोटापा और हाईपरटेंशन जैसी बीमारियां हो सकती है।

"मोबाइल फोन प्रयोग करने वाला बच्चा वास्तविक दुनिया से हटकर इमैजिनेशन की दुनिया में जीने लगता है। वह खेलना-कूदना कम कर देता है। बच्चे का दूसरे बच्चों और परिवार, रिश्तेदार के लोगों से संपर्क कम हो जाता है। उसकी सोशल स्किल कम हो जाती है।"

सिर्फ बड़े बच्चें नहीं, नर्सरी और केजी में पढ़ने वाले हजारों बच्चे भी मोबाइल का शिकार हो रहे हैं। डॉक्टर अपनी भाषा में बच्चों के इस मोबाइल प्रेम को 'मोबाइल एडिक्शन' यानि मोबाइल की लत कहते हैं। मोबाइल के बहुत ज्यादा प्रयोग से बच्चे कई बीमारियों का शिकार भी हो रहे हैं। इनमें से कई बीमारियों के लक्षण तुरंत दिखते हैं तो कुछ का असर लंबे समय में नजर आता है। बड़े शहरो एवं महानगरों के अस्पतालों में ऐसे मरीजों की संख्या लगातार बढ़ती संख्या देखी जा सकती है । बच्चे ये आदत अपने घर से ही सीखते है, जिन घरों में बड़े लोग ज्यादा मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं वहां बच्चों में भी आदत पड़ जाती है। माँ-बाप का इसमें बहुत बड़ा रोल है जाने-अनजाने वो भी बच्चों को मोबाइल और टीवी के लिए प्रेरित करते हैं। आप घर में हैं जिस समय आपको बच्चों से बात करनी होती है आप फोन पर लगे रहते हैं। भारत समेत पूरी दुनिया में जो शोध हुए हैं उसके मुताबिक जिस घर में माता-पिता, बड़े भाई बहन मोबाइल का ज्यादा प्रयोग करते हैं तो वहां बच्चे भी ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। कई रिसर्च में यह भी पाया गया है कि मोबाइल इंटरनेट का प्रयोग कोकीन की तरह है। जिसे नहीं मिलता वो परेशान हो जाता है। पिछले वर्ष कई ऐसी ख़बरें आईं, जिनमें बच्चों की मोबाइल गेम्स के चलते मौत हुई थी। ये समस्या आगे और बढ़ सकती है क्योंकि मोबाइल फोन हाथ में रखने वाले बच्चों की संख्या बढ़ती जा रही है। इनफार्मेशन और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में काम करने वाली अग्रणी कम्पनी एरिक्सन की एक रिपोर्ट के अनुसार तकरीबन आधे से ज्यादा किशोर और जो बच्चे किशोर होने की राह पर हैं उनके पास एक मोबाइल फोन जरूर है। अपने बच्चों की मोबाइल प्रयोग करने की आदत से परेशान भोपाल शहर में रहने वाले अखिलेश रिछारिया बताते हैं,"बच्चों को मोबाइल हमेशा हाथ में चाहिए उन्हें केवल गेम खेलना होता है या कार्टून देखना । कार्टून में जो भाषा प्रयोग होती है उसी भाषा का प्रयोग अपनी रोजना की जिंदगी में करते हैं। हालत ये हो गई है कि हम लोगों को अपना फोन बचाना पड़ता है।"

आखिर मोबाइल एक बड़ी समस्या न बन जाये, समय रहते करें कुछ कारगर निदान -

ये सब रोकने के लिए हमें एक जागरूकता लानी पड़ेगी क्योंकि आज कल न्यूक्लियर फैमिली है। माता-पिता दो लोग ही होते हैं, तीसरा बच्चा जो कि फोन लेकर बैठा रहता है तो माता-पिता को भी बताना पड़ेगा कि कृपया एक दूसरे की मदद करें। जब माँ काम करे तो पिता बच्चे का ख्याल रखे उसे मोबाइल फोन देकर छुटकारा न पायें।" देखिये अगर आपके पास परिवार है तो आपको समय देना पड़ेगा।" अगर बच्चों को मोबाइल की लत से छुड़ाना है तो सबसे पहले उसके सामने फोन का प्रयोग बंद करना होगा क्योंकि बच्चे देख कर बहुत जल्दी सीखते हैं।

बच्चे को किसी भी तरह की स्क्रीन, टीवी-मोबाइल से दूर रखें


बच्चे के साथ ज्यादा वक्त बिताएं ताकि उससे मोबाइल पर समय न बिताना पड़े। बच्चे हमेशा वही सीखते हैं जो देखते हैं। ऐसे में आपको बच्चों के सामने रोल मॉडल बनना होगा। बच्चों के सामने मोबाइल, लैपटॉप या टीवी का कम-से-कम इस्तेमाल करें। अगर मां या पिता ने एक हाथ में बच्चा पकड़ा है और दूसरे में मोबाइल पर बात कर रहे हैं तो बच्चे को यही लगेगा कि मोबाइल और वह (बच्चा) बराबर अहमियत रखते हैं। ऐसा करने से बचें। अगर मदर होममेकर हैं तो कोशिश करें कि मोबाइल पर बातचीत या चैटिंग आदि तभी ज्यादा करें जब बच्चे घर पर न हों। सोशल मीडिया के लिए भी एक सीमा और वक्त तय कर लें। वर्किंग हैं तो घर पहुंचने के बाद बहुत जरूरी हो तभी मोबाइल देखें या फिर कोई कॉल आ रही हो तो उसे पिक करें।

सुबह उठकर पहले बच्चों और खुद पर ध्यान दें,

फिर मोबाइल देखें। अक्सर पैरंट्स अपना काम निपटाने के लिए बच्चों को मोबाइल थमा देते हैं। यह तरीका भी सही नहीं है। बच्चों के साथी बनें, आजकल बहुत-से घरों में सिंगल चाइल्ड का चलन है। ऐसे में बच्चा अकेलापन बांटने के लिए मोबाइल या टैबलेट आदि का इस्तेमाल करने लगता है जोकि धीरे-धीरे लत बन जाती है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए आप घर में बच्चे के साथ क्वॉलिटी टाइम बिताएं। उसके साथ कैरम, लूडो, ब्लॉक्स, अंत्याक्षरी, पजल्स जैसे खेल खेलें। बच्चे को जितना मुमकिन हो, गले लगाएं ताकि उसे फिजिकल टच की अहमियत पता हो और वह महसूस कर सके कि किसी करीबी के छूने में जो गर्माहट है वह सोशल मीडिया की दोस्ती में नहीं। जब बच्चा स्कूल से घर आए तो उससे स्कूल की बातें सुनें,

उसकी पसंद-नापसंद के बारे में जानें,

उसके दोस्तों के बारे में बातें करें। हो सके तो बीच-बीच में उसके दोस्तों को घर पर बुलाएं। इस तरह की चीजों से बच्चे और पैरंट्स के बीच का रिश्ता बेहतर होता है और वह मोबाइल के बजाय सकारात्मक चीजों से जुड़ता है।

बच्चों को आउटडोर गेम्स में लगाएं, बच्चों के साथ मिलकर वॉक करें, योग करें या दौड़ लगाएं। बच्चों को रोजाना कम-से-कम एक घंटे के लिए पार्क ले जाएं। वहां उन्हें दौड़ने, फुटबॉल, बैडमिंटन आदि फिजिकल गेम्स खेलने के लिए प्रेरित करें। पैरंट्स खुद भी उनके साथ गेम्स खेलें। टग ऑफ वॉर, आंख मिचौली जैसे गेम भी खेल सकते हैं, जिन्हें खेलने के लिए ज्यादा कोशिश भी नहीं करनी पड़ती। यों भी विशेषज्ञों का कहना है कि अगर बच्चे रोजाना दो घंटे सूरज की रोशनी में खेलते हैं तो उनकी आंखें कमजोर होने से बच सकती हैं। इसके अलावा, मुमकिन हो तो बच्चे को उसकी पसंद के किसी खेल (क्रिकेट, फुटबॉल, टेनिस, बैडमिंटन आदि) की कोचिंग दिलाएं। इससे वह फिजिकली ज्यादा ऐक्टिव होगा और मोबाइल से भी दूर रहेगा।

घर के कामों में बच्चों की उनकी क्षमता के अनुसार मदद लें। इससे बच्चे आत्मनिर्भर बनेंगे और खाली समय मोबाइल पर बिताने के बजाय कुछ व्यावहारिक चीजें सीखेंगे। कपड़े फोल्ड करना, पानी की बोतल भरना, कमरा सेट करना, पौधों में पानी डालना, अलमारी लगाना जैसे काम बच्चे खुशी-खुशी कर सकते हैं। इन कामों में पैरंट्स बच्चों की मदद ले सकते हैं। इससे पैरंट्स पर काम का बोझ थोड़ा कम होगा और बच्चे आत्मनिर्भर भी बनेंगे।

बच्चों को फोन के बजाय किताबों की ओर ज्यादा ध्यान देने के लिए प्रेरित करें।


उन्हें अच्छी स्टोरी बुक लाकर दें और उनसे कहानियां सुनें। जब बच्चों को स्टोरी बुक या कोई और बुक पढ़ने के लिए दें तो खुद भी कोई किताब पढ़ें। ऐसा न हो कि आप टीवी या लैपटॉप खोलकर बैठ जाएं या मोबाइल पर बातें करने लगें। आपको किताब के साथ देखकर उसका भी मन पढ़ाई में लगेगा। बच्चों को रात में सोने से पहले कुछ पॉजिटिव पढ़ने को कहें, फिर चाहे 2 पेज ही क्यों न हों। इससे नींद भी अच्छी आएगी।

अपनी और अपने परिवार की प्राथमिकताएं तय करें। जितने टाइम सेविंग डिवाइस आज हैं, उतना ही टाइम कम हो गया है लोगों के पास। इसकी वजह यही है कि हमने प्राथमिकताएं तय नहीं की हैं। आजकल अत्यावश्यक (अर्जेंट) और अहम (इम्पॉर्टेंट) के बीच फर्क खत्म हो गया है। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि सेहत अहम है, लेकिन अर्जेंट नहीं है इसलिए हम नजरअंदाज कर देते हैं। रिश्ते अहम हैं, लेकिन अर्जेंट नहीं हैं इसलिए पीछे छूट जाते हैं। ऐसे में प्राथमिकताएं तय करें और सेहत और रिश्तों को टॉप पर रखें। वैसे भी जिंदगी में बैलेंस बहुत जरूरी है। कोई भी चीज कितनी भी जरूरी क्यों न हो, अगर ज्यादा हो जाए तो वह नुकसान ही हो जाएगा। साथ ही, बच्चे के साथ मिलकर जिंदगी का लक्ष्य तय करें और वह लक्ष्य कुछ ऐसा हो जिसमें दूसरों के लिए भी कुछ करने का भाव हो। इससे बच्चा इधर-उधर वक्त बिताने के बजाय अपने लक्ष्य पर फोकस करता है।  

 

लेखक

श्याम कुमार कोलारे

सामाजिक कार्यकर्त्ता, छिंदवाड़ा

 

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