रक्षाबंधन के अगले दिन “भुजलिया उत्सव” आपसी भाईचारा एवं खुशहाली के रूप में मनाया जाना एक गौरव का प्रतीक
“बुंदेलखंड के महोबा में आल्हा-उदल-मलखान की वीरता के किस्से आज भी सुनाए जाते हैं। बुंदेलखंड की धरती पर आज भी इनकी गाथाएं लोगों को मुंह जुबानी याद है।“
रक्षाबंधन के दूसरे दिन मनाया जाने वाला भुजरिया पर्व का मालवा, बुंदेलखंड और महाकौशल क्षेत्र में एक विशेष महत्व के साथ मनाया जाता है। इसके लिए घरों में करीब एक सप्ताह पूर्व भुजरियां बोई जाती हैं। रक्षाबंधन के दुसरे दिन भुजरियों को कुओं, ताल-तलैयों आदि पर जाकर सर्व प्रथम भगवान को भेंट किया जाता है। इसके बाद लोग एक दूसरे से भुजरिया बदलकर अपनी भूल-चूक भुलाकर गले मिलते हैं। रूठों को मनाने और नए दोस्त बनाने के लिए भी इस महोत्सव का विशेष महत्व है। संध्या के समय लोग सज-धजकर नए वस्त्र धारण कर इस त्यौहार का आनंद उठाते देखे जाते हैं। स्थानों पर भुजरिया मिलन समारोह का आयोजन भी किया जाता है। भुजरिया पर्व को लेकर नगर-गांव की नदी, तालाबों पर महिलाओं की भारी भीड़ पहुंचती है। बच्चों में इस पर्व का खासा उत्साह देखा जाता है। इस दिन ग्रामीण क्षेत्रों में विशेषकर बुंदेलखंड एवं महाकौशल क्षेत्र में सुबह से ही आल्हा गान किया जाता है एवं ग्रामीण शैला नृत्य करते है। महिलाएँ सावन गीत का गायन करती है। इस दिन जगह-जगह आल्ह-उलद-मलखान की झाँकियाँ निकलकर उनके वीर गाथाओं का बखान भी किया जाता है। छिंदवाड़ा में परासिया के इकलेहरा की भुजलिया बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है, इसे देखने के लिए जिला ही नहीं अपितु अन्य क्षेत्र के लोग भी आते है । शाम के समय में ग्रामीण अपनी भुजलिया को एक जगह एकत्रित कर उसकी पूजा उपरान्त कुँआ, तालाब, नदी, पोखर आदि में विसर्जन करते है व एक-दूसरे को भुजलिया भेंट देकर खुशहाली की कामना करते है ।
कुछ क्षेत्रों में भुजलिया को एक त्यौहार के रूप में मनाया जाने लगा है, बुंदेलखंड के महोबा में आल्हा-उदल-मलखान की वीरता के किस्से आज भी सुनाए जाते हैं। बुंदेलखंड की धरती पर आज भी इनकी गाथाएं लोगों को मुंह जुबानी याद है। महोबा के राजा परमाल उनकी बेटी राजकुमारी चन्द्रावलि का अपहरण करने के लिए दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबा पर चढ़ाई कर दी थी। राजकुमारी उस समय तालाब में कजली विसर्जन करने अपनी सहेलियों के साथ गई थीं। राजकुमारी को पृथ्वीराज के अपहरण से बचाने के लिए राज्य के वीर सपूत आल्हा-उदल-मलखान ने अपना पराक्रम दिखाया था। इन दोनों के साथ राजकुमारी चन्द्रावली का मामेरा भाई अभई भी था। इस लड़ाई में अभई और राजा परमाल का एक बेटा रंजीत वीरगति को प्राप्त हो गए। बाद में आल्हा, उदल, मलखान, ताल्हन, सैयद, राजा पहरमाल के दूसरे बेटे ब्रह्मा ने पृथ्वीराज की सेना को हराकर राजकुमारी को बचाया। इसी के बाद से पूरे बुंदेलखंड में इस पर्व को विजय दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। सावन माह में कजली मेला के समय गांव देहातों में लगने वाली चौपालों में आल्हा गायन सुन यहां के वीर बुंदेलों में आज भी 1100 साल पहले हुई लड़ाई का जोश व जुनून ताजा हो जाता है। आल्हा-ऊदल की वीरगाथा में कहा गया है 'बड़े लड़इया महुबे वाले, इनकी मार सही न जाए।।! दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान ने राजकुमारी चंद्रावल को पाने और पारस पथरी व नौलखा हार लूटने के इरादे से चंदेल शासक राजा परमाल देव के राज्य महोबा पर चढ़ाई की थी। युद्ध महोबा के कीरत सागर मैदान में हुआ था, जिसमें आल्हा-ऊदल की तलवार की धार के आगे वह टिक न सके। युद्ध के कारण बुंदेलखंड की बेटियां रक्षाबंधन के दूसरे दिन “कजली” दफन कर सकी थीं। आल्हा-ऊदल की वीरगाथा के प्रतीक ऐतिहासिक कजली मेले को यहां “विजय उत्सव” के रूप में मनाने की परम्परा आज भी जीवित है।
भुजरिया पर्व को किन्नर समुदाय बड़ी ही धूम-धाम से मनाता है। इस दिन किन्नर सज-धजकर बड़ी की धूमधाम से जुलूस निकालते हैं। माना जाता है कि राजा भोज के शासनकाल में भोपाल में अकाल पड़ा था। उस समय बिल्कुल बारिश नहीं हुई थी और हर तरफ पानी को लेकर काफी परेशानी हो रही थी। उस वक्त यहां रहने वाले किन्नरों ने मंदिरों और मस्जिदों में जाकर बारिश के लिए प्रार्थना की थी। उनकी प्रार्थना के कारण कुछ समय बाद अच्छी बारिश हुई। इसी ख़ुशी में पहली बार यह पर्व मनाया गया था। अच्छी बारिश, फसल एवं सुख समृद्धि की कामना के लिए रक्षाबंधन के दूसरे दिन भुजरिया पर्व मनाया जाता है। इस दिन जल स्त्रोतों में गेहूं के पौधों का सावन के महीने की अष्टमी और नवमीं को छोटी-छोटी बांस की टोकरियों में मिट्टी की तह बिछाकर गेहूं या जौं के दाने बोए जाते हैं। इसके बाद इन्हें रोजाना पानी दिया जाता है। सावन के महीने में इन भुजरियों को झूला देने का रिवाज भी है। तकरीबन एक सप्ताह में ये अन्न उग आता है जिन्हें भुजरियां कहा जाता है। इन भुजरियों की पूजा अर्चना की जाती है एवं कामना की जाती है कि इस साल बारिश बेहतर हो जिससे अच्छी फसल मिल सके। श्रावण मास की पूर्णिमा तक ये भुजरिया चार से छह इंच की हो जाती हैं। रक्षाबंधन के दूसरे दिन इन्हें एक-दूसरे को देकर शुभकामनाएं एवं आशीर्वाद देते हैं। इन भुजरियों को एक दूसरे के कान में लगाया जाता है। बुजुर्गों के मुताबिक ये भुजरिया नई फसल का प्रतीक है। रक्षाबंधन के दूसरे दिन महिलाएं इन टोकरियों को सिर पर रखकर जल स्त्रोतों में विसर्जन के लिए ले जाती हैं।
नवाबी दौर से भुजरिया पर्व की खास पहचान भोपाल में भुजरिया पर्व नवाबी काल से खासतौर से मनाया जा रहा है। इस भुजरिया उत्सव की शुरुआत सुल्तानजहां बेगम ने की थी। कहा जाता है कि वर्ष 1934 में राजधानी में सूखा पड़ा था, बड़ा तालाब तकरीबन सूख गया था। उस दौर में पानी की आपूर्ति बड़ा तालाब से ही होती थी। इस समस्या के समाधान के लिए रियासत के वजीर ने किन्नरों के गुरु को बुलवाया और इसका उपाय पूछा। कहा जाता है कि गुरु ने बेगम की चुनरी मंगवाई और उसे गीला कर महल के बाहर लटका दिया और कहा कि जब तक ये चुनरी गीली रहेगी तक तक भोपाल में बारिश होती रहेगी। बताते हैं कि इसके बाद झमाझम बारिश शुरू हो गई और हफ्ते भर में इतना पानी गिर गया कि बाढ़ का खतरा मंडराने लगा। इसके बाद गुरु के आदेश पर चुनरी को सुखाना शुरू किया गया और धीरे-धीरे बारिश का दौर थम गया। इसके बाद से भुजरिया महोत्सव धूमधाम से मनाया जाने लगा।
संकलनकर्ता/ लेखक
श्याम कुमार कोलारे
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