समान शिक्षा बने देश का मुद्दा
देश में एक देश-एक विधान-एक संविधान लागू हो रहा है। लेकिन, क्या इस मुद्दे में शिक्षा शामिल नहीं हो सकती?
“अपने देश में भिन्न-भिन्न प्रकार के शिक्षण-संस्थानों में भिन्न-भिन्न प्रकार की शिक्षा दी जा रही है। सबके पाठ्यक्रम से लेकर प्रबंधन तक अलग-अलग हैं। जिनका सरकारीकरण से लेकर व्यापारीकरण तक हो चुका है और पढ़ने वाले बच्चों के परिवारों की आर्थिक हैसियत के अनुसार उनका वर्गीकरण भी।“
हमारा देश बहुत ही सम्रद्ध है, यंहा का विश्व प्रसिद्द संविधान एक अनुकरणीय है जिसे सारा देश मानता है ।हमारे देश में बहुत सी नीतियां सभी के लिए एक जैसी है उसमे ऊँच-नीच, भेदभाव, गरीबी-अमीरी के अनुसार कोई भेदभाव नहीं है। एक देश-एक संविधान की निति से चलने वाले देश में बहुत सी ऐसी निति है जिस पर एक देश-एक चुनाव, एक देश- एक आधार, एक देश एक-राशनकार्ड आदि को लेकर खूब चर्चा होती है और इसे एक बड़ा मुद्ददा बनाकर कार्य किया गया है और कई मुद्दो पर कार्य प्रारंभ है । यह समानता शिक्षा पर लागु क्यों नही हो सकती ? एक देश में दो प्रकार का स्कूली शिक्षा व्यवस्था क्यों है? शिक्षा को सरकारी एवं निजीकरण में क्यों बांटा गया है। सरकारी स्कूल का पाठ्यक्रम एवं निजी स्कूलों का पाठ्यक्रम में इतना अंतर क्यों है । यदि निजी स्कूल की कार्यप्रणाली सरकारी से बेहतर है तो सरकरी स्कूलों में वह नीतियाँ क्यों लागु नहीं हो पा रही है । सरकारी स्कूलों का पाठ्यक्रम निजी स्कूलों के पाठ्यक्रम जैसा क्यों नहीं है । सरकारी एवं निजी के बीच में बहुत बड़ी खाई है जिसे सरकारी स्कूल में पढ़ने वाला विद्यार्थियों के मन में एक कुंठा पनपती है । वह अपने आपको किसी दूसरी पंक्ति पाता है । देश में इन दिनों एक देश-एक विधान-एक संविधान लागू हो रहा है। लेकिन, क्या इस मुद्दे में शिक्षा शामिल नहीं हो सकती? सरकारी और निजी स्कूलों में शिक्षा के नीति-नियम, पाठ्यक्रम, इंफ्रास्ट्रक्चर को देखें तो दोनों में भारी अंतर है । आइये समझते है कि निजी एवं सरकारी स्कूलों में क्या खाई है -
निजी स्कूल में प्रवेश प्ले ग्रुप से होता है । पहली कक्षा तक जाने में प्ले ग्रुप, नर्सरी, एलकेजी, यूकेजी पढ़ चुके होते हैं। प्रवेश की आयु 2 से 3 साल होती है । पांच साल तक आते-आते अक्षर के साथ हिंदी, अंग्रेजी, गणित विषयों का भी बोध हो जाता है। अंग्रेजी की पढ़ाई प्ले ग्रुप से ही प्रारंभ हो जाती है । कंप्यूटर क्लास पहली कक्षा से ही शुरू हो जाती है । क्लासरूम ज्यादातर स्कूलों में डिजिटल, प्रोजेक्टर और स्मार्ट बोर्ड से पढ़ाई हो रही है । कोई सियासी हस्तक्षेप नहीं, केवल पढ़ाई प्राथमिकता । शिक्षक का काम सालभर सिर्फ पढ़ाई,एक क्लास को पढ़ाने के लिए चार से पांच शिक्षक। हर विषय और गतिविधि के लिए अलग शिक्षक, पाठ्यक्रम सीबीएसई स्कूलों में आठवीं तक खुद का। राज्य सरकार से मान्यता प्राप्त स्कूल भी सरकारी के साथ खुद का पाठ्यक्रम पढ़ाते हैं।
वहीं सरकारी स्कूल में प्रवेश सीधे पहली कक्षा से, शुरुआत ही फिसड्डी, प्रवेश की आयु न्यूनतम आयु पांच साल, इसके बाद ही शुरू होता है क ख ग का ज्ञान हो पाता है । अंग्रेजी की एबीसीडी पहली कक्षा में रटाते हैं, तीसरी कक्षा में जाकर ए से एप्पल लिखना सिखाते हैं। कंप्यूटर क्लास 9-10वीं कक्षा में पहली बार लगती है। वो भी बिना शिक्षक। डिजिटल तो दूर टूटे-फूटे ब्लैकबोर्ड भी नसीब नहीं। सियासी हस्तक्षेप बहुत है। अफसरों और राजनेताओं के बीच तबादलों और नौकरी लगाने-बचाने और हटाने की मशक्कत चलती रहती है। शिक्षक का काम पढ़ाना ही नहीं। मिड-डे मील, दूध वितरण, जनगणना, ग्रामसभा, बाल सभा, परीक्षाओं में ड्यूटी और चुनाव ड्यूटी में नौकरी पूरी करना, पाठ्यक्रम सरकार बदलते ही बदल जाता है।
शिक्षा की असमानता ही वह कारक है जिसके कारण हमारे देश में शिक्षितों का एक वर्ग भारत राष्ट्र को टुकड़े-टुकड़े कर देने के लिए आंदोलित हो उठता है। 'एक देश-एक चुनाव' अगर समय की मांग और विकास का रास्ता है, तो 'एक देश-एक शिक्षा' राष्ट्रीय एकता-अखण्डता-समता एवं विकास के अवसर की समानता का माध्यम है। एक वर्ग देश के संसाधनों से पढ़-लिखकर विदेशों में जा बसता है, तो दूसरा वर्ग रोजी-रोजगार के लिए देशभर में दर-दर की ठोकरें खाता-फिरता है। एक वर्ग भारत की हर चीज से तुलना करते हुए भारतीय होने में शर्म का अनुभव करता है, तो दूसरा वर्ग भारत के इतिहास-विरासत-परम्परा से प्रेम करते हुए भारतीय अस्मिता पर गैरवान्वित महसूस करता है। एक वर्ग पढ़-लिखकर नौकरी-व्यवसाय के द्वारा घूस-रिश्वत, लूट-खसोट आदि विभिन्न तरीकों से बेशुमार धन कमाने में ही जीवन की सार्थकता समझता है तो दूसरा वर्ग नीति-न्याय-सत्य-सादगी के मार्ग का अनुसरण करते हुए देश के लिए मर-मिट जाने को ही अपने जीवन का ध्येय मानता है। एक वर्ग वन्दे मातरम के उद्घोष व भारत माता की जय के स्वर से रोमांचित हो उठता है तो दूसरा वर्ग इस जयघोष के विरोध में उतर आता है। सबके अपने-अपने बौद्धिक तर्क हैं। सबकी अपनी-अपनी प्रेरणायें-मान्यतायें हैं, जो सबकी पृथक-पृथक शैक्षिक स्थापनाओं से निर्मित हुई हैं। ऐसी भिन्न-भिन्न मानसिकताओं व मान्यताओं के निर्माण में असमान शिक्षा की अहम भूमिका है। असमान शिक्षा का ही यह परिणाम है कि हम और हमारी पीढ़ियां स्वयं के इतिहास-बोध पर भी एकमत नहीं हैं। कहीं यह पढ़ा जाता है कि हम विदेशी मूल के आर्य हैं, तो कहीं यह कि हमारे पूर्वज अनपढ़-गंवार मदारी, पिण्डारी थे। जबकि, सच यह है कि हम ज्ञान को भी आलोकित करने वाले महान ऋषियों तथा पराक्रम को भी परास्त कर देने वाले शूर-वीरों की संतान हैं।
अपने देश में भिन्न-भिन्न प्रकार के शिक्षण-संस्थानों में भिन्न-भिन्न प्रकार की शिक्षा दी जा रही है। सबके पाठ्यक्रम से लेकर प्रबंधन तक अलग-अलग हैं। जिनका सरकारीकरण से लेकर व्यापारीकरण तक हो चुका है और पढ़ने वाले बच्चों के परिवारों की आर्थिक हैसियत के अनुसार उनका वर्गीकरण भी। निम्न आय वर्ग, मध्यम आय वर्ग, उच्च आय वर्ग, अभिजात्य कुलीन वर्ग के लिए अलग-अलग चार श्रेणियों के अतिरिक्त सरकारी स्कूलों-कॉलेजों की एक पांचवीं श्रेणी भी है, जिसमें आमतौर पर गरीबी रेखा से नीचे के लोग पढ़ते हैं। इन पांचों श्रेणियों के स्कूलों - कॉलेजों में न केवल पाठ्यक्रम अलग-अलग हैं, बल्कि पाठ्य-पुस्तकों की सामग्रियां भी भिन्न-भिन्न तरह की हैं। सबकी आधारभूत संरचनाओं में भी काफी असमानताएं हैं। पठन-पाठन की सुविधाओं में काफी अन्तर है। परिणामस्वरुप बच्चों-विद्यार्थियों के बौद्धिक स्तर में भी सामान्य से अधिक असमानता उत्पन्न हो जाती है। वे अपवाद को छोड़कर आमतौर पर प्रगति के समान अवसर से वंचित हो जाते हैं।
मालूम हो कि हमारे देश के संविधान की प्रस्तावना में ही देश के सभी लोगों को 'अवसर की समानता' देने की बात कही गई है। तो सभी बच्चों को समान अवसर मिल पा रहा है? कतई नहीं। जबकि, एक समतामूलक समाज की स्थापना के लिए यह आवश्यक है कि सभी बच्चों को प्रगति के समान अवसर मिलें, जो 'समान सुविधाओं से युक्त एक समान शिक्षा' से ही सम्भव है। भारत में 6 से 14 वर्ष की उम्र के बच्चों को 'शिक्षा का अधिकार' प्राप्त है। 'समान शिक्षा का अधिकार' तो अभी भी दूर की कौड़ी बनी हुई है। हमारे बच्चों को 'समान सुविधाओं से युक्त समान शिक्षा' का अधिकार मिलना चाहिए। यह तभी सम्भव है, जब 'टेलीफोन रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया' की तरह ही 'एजुकेशनन रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया' जैसी नियामक संस्था कायम की जाए, जो सरकारी व गैर-सरकारी सभी विद्यालयों-विश्वविद्यालयों में उपलब्ध सुविधाओं-संसाधनों तथा उनके पाठ्यक्रमों और शिक्षण-शुल्क आदि में समानता एवं गुणवत्ता स्थापित कर उन्हें नियंत्रित भी करे। आशा है, देश की लुंज-पुंज व्यवस्थाओं को पटरी पर लाने के प्रति कटिबद्ध हमारे प्रधानमंत्री 'एक देश -एक चुनाव' की तरह 'एक देश - एक शिक्षा' के महत्व को भी स्वीकार करते हुए इसे कायम करने की दिशा में पहल करेंगे। समान सुविधाओं से युक्त एक समान शिक्षा की व्यवस्था लागू हुए बिना देश में समता व एकात्मता की स्थापना हो पाना कतई सम्भव नहीं है। राष्ट्रीयता-विरोधी मानसिकता का सृजन करने वाली 'कुशिक्षा' का उन्मूलन भी तभी सम्भव है।
लेखक
श्याम कुमार कोलारे
सामाजिक कार्यकर्त्ता, छिन्दवाडा (म.प्र.)
मोबाइल : 9893573770
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