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गुजरे ज़माने का वैभव

गुजरे ज़माने का वैभव


गुजरे ज़माने का वैभव, खंडहर में कभी रहा होगा

चमक सुनहरें रंगों से कभी, यह भी सजा होगा

दहलीज पर रौनक, दमकती रही होगी कभी वहाँ

शिखरों का दीदार ख़ुशी से, सभी ने किया होगा ।

 

जहाँ चलती थी, एक छत्र हुकूमत किसी की

आदेश पर मर मिटने को, तैयार रहते थे सेवक

क्या अजब-गजब का आलम रहा होगा

मजबूत ऊँचीं ईमारतों का, कालम रहा होगा ।

 

बड़ी खुबसूरत लगती है, आज भी नक्कासी इनकी

बड़ा कुशल कारीगर, बनाने वाला रहा होगा

वर्षो बीते धूप पड़ी, कितनी बरसात सहा होगा

बेसुमार ताकत नीव इसकी, कैसे मजबूत बना होगा ।

 

देख अकड़ इसकी आज भी कलेजा थर्राता है

बीते दिनों के वीर योद्धाओं की, याद दिलाता है

इनके बाजुओं की ताकत, आज भी नजर आते है

पुराने जरुर खंडहर, पुरानी याद ताजा कर जाते है ।

 

आज किला पहले महल था, ठाठ की मिसाल थी

राजाओं की वीरता, रानियों की भी बड़ी शान थी

आज पत्थर काले है, कभी सुर्ख सुनहरें थे

आज जरुर छोटे है ,पर कभी ऊँचे कंगूरे थे ।

 

आज भी अडिग है, मजबूत जैसे ढ़ाल से

बुलंद दीवार इसकी, अपनी अलग पहचान से

तुलना नहीं भूत की  वर्तमान की पहचान से

देख मन भ्रमर हुआ, कारीगरी की खान से ।

 

नाज है हमें अपनी आज, ये बूढ़ी पहचान से

आज भी अडिग है, अपनी खुद की शान से

धमंड है हमें इन राजमहल, बड़े प्रासाद से

खंडहर भले ही हो गए, ये भूली-बिसरी याद से ।     

  

कवी/ लेखक

श्याम कुमार कोलारे

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