बाहर निकालो मन का रावण
हे रावण! तू संभल जा
क्यो मुह उठा कर आता है
बुराइयों का प्रतीक मानकर
तुझे हर साल जलाया जाता है ।
छल-कपट धोखा अहंकारी
तुझे ठहराया जाता है
हर बार फिर से इसी रूप में
तू दुबारा क्यों आ जाता है ।।
दशहरा को सहोदर सहित
तुझे खूब तड़पाया जाता है
लोक ठिठोली करके तुझे
आतिशों में उड़ाया जाता है ।।
हे रावण तू संभाल जा समय है
तुझे खूब ठिटोला जाता है
दम्भ बुराई का शूल तुझे
हर पल चुभाया जाता है ।।
दशमी रात रावण जल गया
उस रात दशहरा अब रोया था
क्या रात बुराई दफन हुई
क्या बुराई का रावण खो गया ।।
नित्य नई कोई मासूम सीता
फिर रावण से छली जाती है
मन मे बैठा रावण के छल कपट
अन्याय धोखा से तड़ी जाती है।।
फिर न छली जाए कोई अवला
बचाने, कौन महावीर आयेगा
मन में बैठा इस रावण को
कौन राम जलायेगा ।।
मन में बैठे रावण का वध
जब तलक न हो पायेगा
खूब मना ले हम दशहरा
हमारा व्यर्थ दशहरा जाएगा।।
कवि/ लेखक
श्याम कुमार कोलारे
छिन्दवाड़ा, मध्यप्रदेश
मोबाइल : 9893573770
बहुत ही सुंदर रचना सर 💐💐💐👌👌👌👌
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