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 रावन का पश्चाताप

रावन का पश्चाताप


मैं हर साल पश्चाताप की अग्नि से जलता हूँ, अब मैं रावण बन हर साल नहीं जलना चाहता

मैंने अपने अहंकार और अपनी शक्ति के द्वारा जुटाया साधन से अहंकारी हो गया था। मैंने सोचा था कि मैं अपनी शक्ति के दम पर कुछ भी हासिल कर सकता हूँ। मुझे अपनी शक्तिओं पर बड़ा घमण्ड था, आखिर रहे भी क्यों न! ये मुझे कोई खैरात में नहीं मिली थी, यह मेरे स्वयं की मेहनत और तपस्या से अर्जित की हुई शक्तियां थी। परन्तु मुझे अफ़सोस है कि इन शक्तिओं का उपयोग मुझे किसी अच्छे कार्यों में लगाना था, उसे मैंने बुरे काम में लगाया जिससे मैं जड़ मूल से समाप्त हो गया। मैं बड़ा विद्वान्, महान पण्डित, वेद-पुराण, उपनिषदों, शास्त्रों आदि का ज्ञाता था, मुझमे बहुत अच्छे-अच्छे गुण भी थे जिस पर दुनिया कायल थी, परन्तु मुझमे असुरी गुण भी था जो सब गुणों को शून्य करने में मेरा पीछा नहीं छोड़ता था। इसी गुण के कारण मैं राजा से रंक बना यह जग जाहिर है। जब मुझमें असुरी प्रवत्ति आसक्त होती थी तो मेरे अन्दर का गुण सिर पर पैर रखकर भाग खड़ा होता था।

मैनें सीता का हरण तो किया पर उसके साथ भोग नहीं किया, क्योंकि वह मुझे नहीं चाहती थी। वह मेरे अपने महल में थी, तो भी मैनें जबरन उस पर अधिकार जमाना नहीं चाहा। मेरी पत्नी पटरानी मंदोदरी ने भी सीता को समझाया था कि तुम रावण को स्वीकार कर लो पर सीता के मना करने पर कभी मैनें बल प्रयोग नहीं किया। सीता का हरण किया यह मेरा अपराध था, मेरी बुराई थी पर सीता को स्पर्श तक नहीं करना मेरी अच्छाई थी, मेरी नेकी थी।

मैं उसे वहीं छोड़ना चाहता था, पर विधि का विधान था और मेरे मन का विचार कि इसे धन, वैभव, शक्ति, धार्मिक क्रिया, खाने-पीने के व्यंजन और अन्य प्रभावों से परिचित करवाकर इस का मन परिवर्तित करूँगा और अपना बना लूंगा। यह केवल मेरा विचार था, मैं एक पतिव्रता स्त्री की भावनाओं को समझ नहीं पाया कि सीता जैसी नारी इन तुच्छ वस्तुओं के छलावे में नहीं आती। पर मैनें अपना संयम नहीं खोया। बताओ आज के जमाने में कोई है जो सारे साधन और शक्ति होने के बाद स्त्री के मोह में संयम रखे, अरे आज तो लोग अपने रूतबे और धन का इस्तेमाल स्त्री की मर्यादा को तार-तार करने में करने में करते हैं और उसे रावण वृत्ति कहते हैं? नहीं, मैं रावण संयमी था ये मेरी वृत्ति नहीं। मैं सीता के लिए व्याकुल हुआ, यह मेरे पाप कर्म का उदय था क्योंकि इसके बाद मेरा सब कुछ चला गया। परस्त्री की भावना मात्र ने मुझ से शक्ति, धन, ज्ञान, विनय और अपने भाई, बेटा, पिता, मंत्री, पत्नी, बहन, मित्र को दूर कर दिया। सीता का हरण करने के बाद ही मैं अहंकारी हुआ और गुरु का अविनय करने लगा। मेरे भाई विभीषण ने मेरा त्याग कर दिया। मैं युद्ध में मारा गया। कोई कहता है राम ने मारा, कोई कहता है लक्ष्मण ने। राम तो दलायु थे, वो शत्रु से प्रेम करते थे, और फिर जिन का भाई लक्ष्मण हो उसे युद्ध की क्या आवश्यकता। लक्ष्मण नारायण थे और मैं प्रति नारायण हमारे बीच युद्ध होना ही था और मेरा अंत भी निश्चित था। मेरा संहार तो मेरे कर्मों की गति का परिणाम था। मैं यहाँ आपके समक्ष वह कह रहा हूँ जो मेरे मन की पीड़ा है, ज्ञानी के अज्ञानमयी अंधकार में खोने की वजह है। पर अपनी कमजोरी और पाप कर्म का बोध कर आत्म ग्लानी के साथ प्रायश्चित करना आसान नहीं, यह तो कोई पुण्य शाली जीव ही कर सकता है और मैं हूँ पुण्यशाली क्योंकि मैं जीवन-मरण से मुक्त हो मनुष्य से तीर्थं कर होने का अधिकारी बन चुका हूँ।

मेरा यह पछतावा आज के लोगो के लिए एक सीख है कि मनुष्य कितना ही साधन संपन्न हो जाये परन्तु अनीति के किया गया कार्यों का फल देर सवेर एक दिन भोगना ही पड़ता है । मेरे जैसे शक्तिओं से सम्पन्न एवं धन वैभव का मालिक अनीति के कारण धूल की खाक में मिल सकता है तो एक साधारण मनुष्य की दुर्गति की कल्पना करना कोई बड़ी बात नहीं । मैंने एक बार अनीति से परस्त्री को अपनाना चाहा उसकी सजा मुझे हर साल मेरे भाइयों समेत सब के सामने दहन मिल रही हैं। परन्तु आज के लोग मेरे इस स्वाभाव से सीख लेकर अपने को सुझार क्यों नहीं रहे है? इसे लेकर मैं बड़ा चिंतित हूँ । मेरी एक गलती की सजा मैं हर साल दशहरा के दिन भुगतता हूँ । मैं हर साल सोचता हूँ की मेरे दहन के बाद लोगो में महिलाओं के प्रति सम्मान, उदारता, श्रद्धा आएगी परन्तु नहीं! लोगो के मन में रावण के अवगुण तो मेरे दस सिर की तरह बढ़ते ही जा रहे, मेरे तो केवल दस सिर थे परन्तु लोगो के मन में इससे ज्यादा अद्रश्य सिर है जो कम नहीं हो पा रहे है। दशहरा में आप मुझे यानि रावण का प्रतिक को तो जलाते है, परन्तु लोगो के मन में बैठा रावण नहीं जल पा रहा है, रावन को वास्तव में जलना है तो लोगो के मन में छिपा रावण को जलना होगा। आप ही बताओ कि कीचड़ में यदि आपको हीरा नजर आए तो क्या करोगे, हीरे की संपूर्ण चमक को देखने के लिए उस पर से कीचड़ हटा दोगे और हीरे को ही संजाओगे ना या फिर कीचड़ का रोना ही रोते रहोगे, मेरे जीवन के गुणों की चमक ही आपका भला कर सकती है। मेरे जीवन के एक गलत कार्य के कीचड़ को हटाकर मेरे अनन्य सत्गुणों को देखोगे, समझोगे और सिर्फ उन्हे ही धारण करोगे, तो अवश्य ही आपके परिणाम शुद्ध होंगे ना कि मेरे पुतले को जलाकर मुझे कोसने से। यह मेरा पश्चाताप है अब मैं रावण बन हर साल नहीं जलना चाहता ।   

लेखक/ सामाजिक चिन्तक
श्याम कुमार कोलारे
shyamkolare@gmail.com

2 Responses to " रावन का पश्चाताप"

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