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काँपते हाथ की लाठी

काँपते हाथ की लाठी



वो झुका हुआ कमजोर कंधा, 
धुंधली सी असहाय निगाहें,
वो कांपते हुए मजबूर हाथ, 
लिये हुए लाठी का साथ।

निहार रहे किसी अपनों को, 
वो मन में दबे सैकड़ों जस्बात,
हमे भी मिले सहारा कोई कंधा,
कोई थामे हमारा भी हाथ।

आज ये झुक गए हमारे कंधे,
कभी हुआ करते थे मजबूत,
जिस पर बिठाकर सैर कराया, 
इस पर बिठाकर घुमाया खूब।

उंगली पकड़े चलना सिखाया, 
डिगते पग को मजबूत बनाया,
थमे पैर कई बार मगर रुकने न दिया
धरती पर अडिक रहना बताया।

आज हुआ जब बेबस चाम
थम गई जब कर की गीस
आज सहारा देकर बेटा
कर तू अपना ऊंचा शीस।

कर्तव्य पथ पर बेटा-बेटी
हरदम रखना इनकी सीख
मात-पिता गर रहे खुश तो
नाम ऊँचा रहेगा बन आशीष।

इक आरजू प्यारे बच्चों 
बूढ़े माँ-बाबा के दें सम्मान
बड़ी गहरी जड़े है इनकी
प्यार ममता की है ये खान।

पेड़ भले बूढा हो जाता
पोषण हरदम सबको देता
जड़ गर सूख जाए इनकी
पेड़ हरा-भरा फिर कैसे रहता।

बूढ़ी काया बदलती जैसे
बचपन का आया भान
सह लें उम्र की इक जिद 
नही किसी का सम्मान।

श्याम शब्द जानके ऐसा
ध्यान रखें सब जग बासी
कृपया बानी रहे पितरों की
समृद्धि बड़े हर मासी।

कवि/ लेखक
*श्याम कुमार कोलारे
सामाजिक कार्यकर्ता,
चारगांव प्रहलाद, छिन्दवाड़ा
मोबाइल 9893573770

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