लघुकथा - कर्ज़ा
बिरजू अपने माता-पिता की चौथी व सबसे छोटा पुत्र था।उसके तीनो बड़े भाई शहर में नॉकरी करते थे।बिरजू घर में ही रह में गया।घर के काम-धाम खेती-बाड़ी और माता-पिता की देख-भाल व जवाबदारियाँ होने के कारण वह ज्यादा पढ़ाई नही कर पाया।और इस तरह से वह अपने कर्तव्यों का पालन ईमानदारी से करने लगा।इसके इस सेवा भाव को देखकर बूढ़े माता-पिता बहुत प्रसन्न रहते थे।माता-पिता की इस प्रसन्नता को देखकर उसके सभी बड़े भाई सहित उसकी भाभियाँ बहुत जलते थे।और हमेशा बेवजह ताना कसते रहते।
आज उनके सभी बड़े भाई और भाभियाँ ग्रीष्म ऋतु की छुट्टियां बिताने अपने गाँव आए हुए हैं।बिरजू बहुत खुश है।और बिना थके बिना रुके उनकी सेवा में लगा हुआ है।इसके बाद भी भाभियों को वह"फूटी आँख नही सुहाता।"
लेकिन बिरजू इन सब बातों का परवाह किये बिना अपने कामो में लगा रहता।
कभी खेती-बाड़ी का तो कभी खलिहान का तो कभी घर के कामो में व्यस्त रहता। और अंत मे माता-पिता को खिला-पिलाकर उनके पांवों को दबाकर उनके पास ही सो जाता।
पर उसके बड़े भाई लोग झांकने भी नही आते।
और मन ही मन कुढ़ते रहते।भाभियों को भी यह बात हमेशा कांटो की तरह चुभती रहती।
और एक दिन उसके भाभी-भैया मिलकर उसे यह कहकर कि-
"हमारी सबकी सम्पत्ति के लालच में हमेशा झूठी सेवा करते रहते हो।"
और हम सब के समाने झूठी शान बघारते हो।"
इतना सुनकर बिरजू के "पैरों तले जमीन खिसक" गई।और वह भोला-भाला बिरजू बहुत दुखी हो गया।
और इस तरह लांछन,बदनामि और जिल्लत को सुनकर वह अपने आप को रोक नही पाया।
और रुंधे गले से कहने लगा-
"मुझे सम्पत्ति का कोई लालच नही है।मुझको कोई सम्पत्ति नही चाहिए।मुझे बस आप लोगों का प्यार चाहिए।मैं तो अपने मात-पिता का दिया कर्ज़ा उतारने का प्रयास कर रहा हूँ। जिसने मुझे जन्म दिया है पाला-पोसा है।ताकि मेरे बच्चे भी मेरी तरह से सेवा करके मेरा कर्ज़ा उतार सके।और आने वाली सारी पीढ़ी इसे अपना कर्तव्य समझ के माता पिता की सेवा करे।
इतना सुनते ही सभी भैया-भाभियों की आंखे खुल गई,और अपने किए पर शर्मिंदा होने लगे।
और जाकर सभी अपने बूढ़े माता-पिता के चरणों मे गिर गए।
और कहने लगे-
"हमे माफ करदो पिता जी!"
"हम लोगों से बड़ी भूल हो गई!"
यह देख कर बिरजू प्रसन्न हो गया।
लेखक - अशोक पटेल"आशु"
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