सच्चा दान
लखनऊ से मेरी बदली हुई तो मुझे चिंता हुई कि पता नहीं कैसी होगी नई जगह? किराए का घर लेना होगा, थोड़ा-बहुत सामान भी ले जाना होगा। जब तक वहां रहूंगा, अकेला ही रहना होगा। कहीं खाने की व्यवस्था करनी होगी। मेरे एक परिचित देवनाथ वहां रहते थे। वह मुझे ले गए एक किराए का मकान दिखाने। मैं एकलाराम था। मेरे लिए एक कमरा भी मिल जाता, पर्याप्त था। खाने की व्यवस्था कहीं बाहर ही करनी थी। इसलिए किचन की चिंता नहीं थी। पर सुबह की चाय-नाश्ता, गरम पानी, एक चारपाई, बिछौना, ओढ़ने के लिए भी कुछ ले जाना होगा, एकाध तिपाई-कुर्सी, बाथरूम में बाल्टी-मग, इतना सामान तो चाहिए ही।
हम पहुंचे तो चिदंबरम जैसे खतरनाक दिखाई दे रहे एक भाई साहब मुसकराते हुए हमारा इंतजार करते हुए खड़े थे। औसत ऊंचाई और वजन, गोल-शांत चेहरा, आंखों में जीवन की समझ, शांत प्रकृति। "यह है हमारे रजनीश भाई।" देवनाथ ने उनका परिचय कराया। एक महिला किचन से निकल कर बाहर आई। "यह अंजुजी।" एक बच्ची पढ़ते हुए आई। सभी मुझे विशेष आदरभाव से देख रहे थे। देवनाथ ने मेरे बारे में उन लोगों से पहले ही सब कुछ बता दिया था, "बहुत बड़े लेखक हैं। इनकी कहानी कोर्स में पढ़ाई जाती है।"
"आइए सर, चलिए ऊपर कमरा देख लीजिए।"
ऊपर गया। हवा-उजाले वाला बढ़िया कमरा, पीछे एक छोटा कमरा, लैट्रिन-बाथरूम तथा चाइनामोजैक लगी काफी बड़ी बालकनी। सुंदर बालकनी देख कर मैं खुश हो गया। अपनी पसंद बता कर मैं ने पूछा, "किराया?"
"आप जो दे दीजिएगा, वही किराया हो जाएगा। आप हमारे मेहमान हैं। दोनों ही टाइम भले ही बाहर खाइएगा, पर सुबह का चाय-नाश्ता तो हमारे साथ ही कीजिएगा।" रजनीशजी ने कहा, "नहाने के लिए गरम पानी, गैस सिलेंडर और एक छोटे चूल्हे की व्यवस्था मैं कर दूंगा। अगर आप नहाने के लिए नीचे आ जाएंगे, तो भी कोई बात नहीं। आप को अपने साथ कोई सामान भी लाने की जरूरत नहीं है। बेड-बिस्तर, तिपाई, कुर्सी वगैरह की व्यवस्था भी मैं कर दूंगा।"
"ऊपर झाड़ू-पोछा आदि के लिए कोई काम वाली?"
"हमारे यहां घर का काम करने के लिए रिंकी आती है। वह ऊपर का भी सारा काम कर देगी। आप बस रहने आ जाइए और यहां रह कर खूब लिखिए।" रजनीश ने कहा।
मेरी सारी चिंता खत्म हो गई। मैं रहने आ गया। सुबह झाड़ू-पोछा रिंकी कर जाती। सुबह के चाय-नाश्ता के लिए रजनीश बुलाने आ जाते। मैं कहता भी, "अरे आप बुलाने क्यों आ गए। मिसकाॅल मार देते, मैं खुद ही आ जाता।"
फिर भी वह कभी मिसकाॅल न मारते। शायद मैं सो रहा होऊं तो नींद में खलल पड़ जाए? एक दिन वह सुबह मुझे नाश्ते के लिए बुलाने आए तो मुझे लिखता देख कर चुपचाप वापस लौट गए और चाय-नाश्ता ऊपर ही ले आए। चाय-नाश्ता तिपाई पर रखते हुए कहा, "चाय-नाश्ता तिपाई पर रख रहा हूं।"
मैं उन्हें नीचे जाते देखता रह गया। कुछ ही दिनों में उनके स्नेह ने मुझे परिवार का सदस्य बना दिया। अंजुजी भी उतनी ही दयालु स्वभाव की थीं। उन्होंने तो मुंहबोला भाई ही बना लिया था। पापड़ बनाने के सीजन में एक दिन मुझसे सुबह-सुबह ही पूछा, "गेहूं के आटे का नमकीन हलवा अच्छा लगता है?"
"हां, क्यों नहीं?"
थीड़ी देर बाद वह मुझे एक डिब्बे में गेहूं के आटे का नमकीन हलवा दे गईं। डिब्बा तिपाई पर रखते हुए उन्होंने कहा, "मेरा तो अभी बाकी है। यह तो पड़ोस में बनाने गई थी, वहां से आप के लिए ले आई।"
झाड़ू-पोछा करने के बाद रिंकी रोजाना पूछती, "देखिए अंकल, मैं ने पोछा कैसा लगया है, चमक रहा है न?"
नोटबुक से नजर हटा कर मैं कहता, "बहुत अच्छा लगाया है। एक-दो दिन पोछा नहीं भी लगाओगी, तो भी चलेगा।"
"अंकल, आप को ऐसा नहीं कहना चाहिए। आप को कहना चाहिए कि तुम ने झाड़ू-पोंछा ठीक से नहीं किया? खिड़की-दरवाजे को गीले कपड़े से क्यों नहीं पोंछा?"
पांचवे-छठवें में पढ़ने वाली पतली-दुबली रिंकी का लंबा मुंह, बड़ी-बड़ी चमकीली आंखें और अस्त-व्यस्त बिखरे भूरे बाल, पुराने पर साफ-सुथरे कपड़े। मैं ने पूछा किस क्लास में पढ़ती हो?"
"छठवी में।"
"कितने घरों में काम करती हो?"
"मेरी मां ने मना किया है कि कोठी वालों के यहां काम करने नहीं जाना है। इसलिए ज्यादा घरों में काम नहीं करती।" (किसी कोठी में इस तरह की लड़की के साथ कुछ गलत हुआ होगा, इसलिए मां ने रोका होगा।)
रजनीशजी डिग्री कालेज में बाबू थे। अंजुजी प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका थीं। कभी-कभार मैं रजनीशजी के साथ नीचे बरामदे में पड़े सोफे पर बैठ जाता। बहुत ही धीमे स्वर और गति में रजनीशजी बातें करते, जिसमें उनके जीवन की समझ झलकती। हर किसी की मदद के लिए वह तैयार रहते। जनसेवा को वह प्रभुसेवा मानते थे। यही उनके जीवन का मंत्र भी था। किसी भी तरह की तारीफ से दूर चुपचाप सेवा करते रहते, किसी भी संवयंसेवी संस्था में जुड़े बगैर।
एक दिन उन्होंने रिंकी की बात की। रिंकी ने उनसे कहा, "अंकल, मेरे दादा ने खाना छोड़ दिया है।"
"क्यों, बीमार हैं क्या?" रजनीशजी ने पूछा।
"नहीं, बीमार नहीं हैं। पूरी तरह ठीक-ठाक हैं।"
"तो खाना क्यों छोड़ दिया है?"
"खाना इसलिए छोड़ दिया है कि उन्हें शौच न जाना पड़े।" रिंकी ने कहा।
पहले यहां एक बहुत बड़ा तालाब था। इसलिए झुग्गी-झोपड़ियों और गांव में रहने वाले लोग उसी तालाब के पास शौच के लिए जाते थे। तालाब सूख गया तो बोतल या डिब्बे में पानी ले कर लोग शौच के लिए जाने लगे। पर जब यहां यह कालोनी बस गई तो शौच जाने वाले लोगों का कालोनी में रहने वाले लोग विरोध करने लगे। फिर भी लोगों का शौच जाना बंद नहीं हुआ। कुछ लोग तो सवेरा होने के पहले ही मुंह अंधेरे जा कर शौच कर जाते। इससे आसपास रहने वालों को परेशानी होती। तब वे विरोध करने के साथ-साथ पत्थर भी फेंकने लगे। लोग डिब्बा-बोतल छोड़ कर भागने लगे। बस, उसी के बाद से रिंकी के दादा ने खाना छोड़ दिया।
रिंकी ने यह बात रजनीशजी को बताई तो उन्होंने शौचालय बनवाने के लिए रिंकी के दादा को पैसे दिए। यह जानते हुए कि यह पैसा वापस नहीं मिलना। रिंकी के दादा ने पैसे ले तो लिए, पर चिंतित स्वर में कहा, "इतनी बड़ी रकम तो मैं इस जन्म में वापस नहीं कर पाऊंगा? रिंकी छह महीने की थी, तब उसकी मां उसे छोड़ कर चल बसी थी। उसका बाप कुछ खास कमाता नहीं था। इस उम्र में मैं मजदूरी करता हूं, जिससे किसी तरह दो जून की रोटी मिलती है।"
"यह रकम आप को लौटानी नहीं हैं।" रजनीशजी ने कहा।
रिंकी के दादा की आंखों से जलधारा बह निकली। भर्राए स्वर में उन्होंने कहा, "तो रिंकी आप के यहां जो काम करती है, उसका पैसा मत दीजिएगा। रिंकी हमेशा आप के घर आप जो कहेंगे, वह काम करेगी।"
पर रजनीशजी के घर का काम उतनी छोटी बच्ची करे और वह उसे पैसा न दें, ऐसा हो ही नहीं सकता था। पूरी बात सुन कर मैं ने कहा, "रजनीशजी, रिंकी के दादा को आप ने जो दान दिया, वही सच्चा दान है।"
"अरे कैसा दान। किसी गरीब आदमी की प्राथमिक जरूरत पूरी कर दी। किसी को सचमुच जरूरत हो और हम उसकी मदद कर दें, तो इसे दान थोड़े ही कहा जाता है। फिर दान केवल मंदिरों में ही नहीं किया जाता। किसी की मदद कर के भी किया जा सकता है।"
लेखक- विरेंद्र बहादुर सिंह ,नोएडा-201301 (उ0प्र0)
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