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सामाजिक पिछड़ापन न लगा दे बच्चों के उज्ज्वल भविष्य में विराम

सामाजिक पिछड़ापन न लगा दे बच्चों के उज्ज्वल भविष्य में विराम

 

आज़ादी से पहले की सामाजिक स्थिति की पर प्रकाश डालते है तो हमें जानने की लिए मिलेगा कि दलित समाज के लोगों को शिक्षा का अधिकार नहीं था। शिक्षा में बदलाव अंग्रेजों के शासनकाल से प्रारम्भ हुआ, उस समय शिक्षा सुधार के लिए कई कार्य किये गए जिसमे दलित समाज के कुछ समाजसेवकों का बहुत ही बड़ा योगदान रहा है। दलित समाज की शिक्षा का बीड़ा उठाने वाले समाजसेवको में सावित्रीबाई फुले एवं महानायक महात्मा जोतिबा फुले के कठिन संघर्ष एवं पहल से उस समय शिक्षा की स्थितियाँ कुछ बदलाव आया एवं और इसके बाद आगे चलकर एक मुक्त शिक्षा व्यवस्था लागू हुई।  परन्तु आज भी यह भी देखा जा सकता है कि कई बच्चे प्राथमिक शिक्षा के बाद आर्थिक चुनौतियों के कारण शिक्षा से अलग हो जा रहे हैं और माध्यमिक और उच्च शिक्षा से वंचित रह जा रहे हैं। इसके लिए उन्हें छात्रावासों की और छात्रवृत्तियों की व्यवस्था की गई। इस तरह के अनेको प्रयासों की वजह से शिक्षा का ग्राफ तेज़ी से ऊपर गया है परन्तु जनसंख्या के अनुपात से देखें तो अभी भी दलितों का साक्षरता प्रतिशत कम है। आजादी के बाद शिक्षा में आरक्षण की नीति के कारण उच्च शिक्षा में भी देखें तो दलितों के वहाँ पहुँचने में कुछ तो प्रगति हुई है पर फिर भी इस बात से मैं सहमत हूँ कि कई तरह की सुविधाओं के होने के बावजूद आईआईटी और आईआईएम या उच्च शिक्षा में उनका प्रतिनिधित्व उतना नहीं है जितना कि होना चाहिए था। ये सब सुविधाओं के वावजूद उच्च शिक्षा एवं जिम्मेदारी एवं उच्च पदों पर न पहुँच पाना की बहुत सी वजह रही है जिसमे गरीबी, सामाजिक विभेद,जातिगत भेद, आर्थिक चुनौतियाँ, प्रतिनिधित्व में अवसर की कमी, सामाजिक परिवेश, रूढ़िवादिता और घर का माहौल आदि शामिल है । इसकी वजह से और वर्गों की तुलना में इस वर्ग से एक छोटा सा तबका ही उच्च शिक्षा में जा पाता है। “उच्च वर्गों से ज़्यादा तादाद इसलिए है क्योंकि उन्हें सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ा इसकी एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है जिसका उन्हें लाभ मिलता आया है।”

मेरी अपनी राय है कि शिक्षा नीति को और प्रभावी बनाने के लिए सामान्य शिक्षा की व्यवस्था लागू हो। गुणवत्ता के स्तर पर सभी को एक जैसी शिक्षा उपलब्ध कराया जाए। कोठारी आयोग ने भी इस पर काफी बल दिया था। वर्तमान शिक्षा का परिवेश देखे तो केंद्रिय कर्मचारियों के बच्चों के लिए केंद्रीय विद्यालय हैं, सैनिकों के बच्चों के लिए सैनिक स्कूल हैं, गांव में जो मेरिट वाले बच्चे हैं उनके लिए नवोदय स्कूल हैं, साधन संपन्न अपने बच्चों को प्राइवेट में पढ़ते है, और सामान्य बच्चों के लिए सरकारी स्कूल ही एकमात्र विकल्प बचता है । इससे एक तरह की असमानता हम लोगों ने ही पैदा कर दी है। समाज का एक विशेष आर्थिक पहुँच वाला व्यक्ति ही अपने बच्चों को यह शिक्षा दे पा रहा है और बाकी के लिए सरकारी पाठशालाएं हैं। हम अच्छे स्कूलों को ख़त्म न करें पर आम लोगों के लिए उपलब्ध शिक्षा व्यवस्था में अध्यापक से लेकर सामग्री तक सुधार तो लाएं ताकि ग़रीब तबका और दलित समाज के बच्चे औरों के सामने खड़े तो हो सकें ।

पिछड़े समुदाय जैसे आदिवासी, दलित, महिलाएं, अल्पसंख्यक और फिर ग़रीब व्यक्ति, इन सभी को शिक्षा में समान अधिकार दिए जाने की ज़रूरत है। जिन दलित की स्थिति सुधरी है उन्हें भी शिक्षा में समान अधिकार तो मिलने चाहिए पर आर्थिक सहूलियतें उन्हें ही देनी चाहिए जो कि ग़रीब हैं।

आज किसी भी क्षेत्र में बच्चों का चयन एवं प्रवेश का एक ट्रेंड देखा जा सकता है कि उनका इंट्रेंस परीक्षा होती है एवं प्रवीण सूचि में जिनका स्थान ऊपर है उनका चयन शिक्षा, रोजगार, प्रशिक्षण या किसी भी लाभान्वित योजनाओं का लाभ पाने वाले स्थान पर चयन होता है । यह एक बहुत ही पुरानी एवं प्रचलित पद्धति है । परन्तु मेरे मन में एक प्रश्न हमेशा उमड़ता रहता है कि उन बच्चों का क्या जो मेरिट सूचि में नहीं आये है? वैसे यदि थोडा गंभीरता से इन सुचिओं में आगे आने वालों की प्रष्ठभूमि देखा जाए तो पता चलेगा कि यह सभी ऐसे वर्गों से होंगे जो आर्थिक रूप से सक्षम, प्राइवेट स्कूल में शिक्षित, कोचिंग लेने वाले, अंग्रेजी मीडियम वाले, सामाजिक रूप से प्रभावी एवं उच्च जातिगत सक्षमता से पूर्ण साधन संपन्न लोगो के बच्चे होंगे। हमारे 80 प्रतिशत बच्चे जो इन मेरिट सूचि से बंचित रह गए है सही मायने में उन पर ही अधिक कार्य करने की आवश्यता है। ये बच्चे अपने आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं सांकृतिक  पिछड़ेपन के कारण मुख्य धारा से नहीं जुड़ पाते है एवं हर क्षेत्र में पिछड़ जाते है । मजबूरन उन्हें हालातो से समझौता करके जो मिला उससे ही संतुष्ट होना पड़ता है एवं उच्च शिक्षा, उच्च पद , रोजगार आदि से समझौता करना पड़ता है।  हमारी सरकारे या शिक्षा सुधार में कार्य करने वाले संस्थानों को ऐसे बच्चो के शिक्षा के लिए उचित प्रयास करने की आवश्यता है ।

“हर एक बच्चा के पास अपना एक विशिष्ट गुण होता है, इसे पहचानकर उसे उस दिखा में प्रखर बनाने के लिए सहयोग करने की आवश्यता है।”


लेखक- श्याम कोलारे, सामाजिक कार्यकर्ता छिंदवाड़ा मप्र

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