अहम की दीवार
माधव और तनिष्का बाल्यावस्था से ही एक दूसरे को जानते थे। दोनों के परिवारों में प्रगाढ़ मित्रता थी। धीरे-धीरे बड़े होने पर दोनों के मन में एक -दूसरे के प्रति लगाव उत्पन्न हो गया ।यह लगाव कब प्रेम में परिवर्तित हो गया दोनों को पता ही नहीं चला। जब भी तनिष्का माधव के घर आती,तो उसकी माँ तनिष्का को प्रेमपूर्वक माधव के विषय में बताती रहती। उसकी पसंद- नापसंद बताती, जैसे कि उसे अपनी होने वाली बहू मान चुकी हों। माधव का परिवार तनिष्का के परिवार के मुकाबले थोड़ा गरीब था, क्योंकि परिवार बहुत बड़ा था, और माधव के पिता कृषि कार्य में व्यस्त रहते थे।और कृषि का कार्य होता भी ऐसा है, कि कभी मौसम की मार, तो कभी फसल का उचित मूल्य न मिल पाने के कारण व्यक्ति दरिद्रता की सीढ़ी से ऊपर नहीं चढ़ पाता। किंतु दोनों ही धीरे-धीरे अपने परिवार को आर्थिक संबल प्रदान करना चाह रहे थे। स्नातकोत्तर की परीक्षा के बाद दोनों ने आवेदन के अलग-अलग फॉर्म डाल दिए। तनिष्का ने शिक्षण क्षेत्र में आवेदन किया, तो दूसरी ओर माधव ने बैंक की परीक्षा देखी। और ईश्वर की कृपा से माधव पहले ही प्रयास में बैंक की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया।उसकी लिखित एवं मौखिक परीक्षा के बाद उसे मैनेजर पद प्राप्त हुआ। अब माधव की माताजी का स्वभाव तुरंत परिवर्तित हो गया। जहाँ वे पहले तनिष्का के घर आने पर उसका हृदय से स्वागत करती थी। और उसे माधव के कमरे में भेज देती थीं। वहीं अब तनिष्का के आने पर उनके माथे पर बल पड़ने लगे। और वे तनिष्का को देखते ही अपना आपा खो बैठतीं, और धीरे-धीरे बड़बड़ाने लगतीं--" इस लड़की को कोई और काम नहीं है, जहाँ देखा अमीर लड़का बस चल दी पटाने.. हुँह... पता है मेरे माधव की नौकरी लग गई है... तो आ गई उसे रिझाने।हर कुंवारी लड़की ऐसे ही अमीर लड़का चाहती है। किंतु मैं तो अपने माधव का विवाह किसी ऊँचे परिवार में करूँगी । जहाँ से मुझे खूब सारा दान -दहेज भी मिले... आखिर अपने माधव की पढ़ाई में भी तो हमने बहुत खर्चा किया है... वह अक्सर माधव के पिताजी से अब ऐसा कहने लगीं। उनका अहम दिन- प्रतिदिन बढ़ने लगा ।नौबत यहाँ तक आ गई कि तनिष्का यदि घर आती, तो वे उसे देखकर जानबूझकर किसी काम में जुट जाती।अथवा उसकी अनदेखी करने लगतीं... माधव यदि कमरे में भी होता, तो झूठ बोल देतीं कि वह यहाँ नहीं है ।
तनिष्का कोई बच्ची नहीं थी, वह भी उनका रुखा व्यवहार देखकर स्वयं में ही सिमटती चली गई। अब उसने माधव के विषय में उनसे पूछना बंद कर दिया। किंतु यह मन किसी के समझाये कहाँ समझता है? इसे तो बस प्रेम की एक बूँद चाहिए.. प्रिय की एक झलक चाहिए ...अमीरी- गरीबी के मापदंडों से यह परे रहता है..
एक दिन तनिष्का की माँ माधव के घर गयीं और उन्होंने माधव और तनिष्का के मूक प्रेम को माधव की माँ के समक्ष रखा। और उनके सामने प्रस्ताव रखा, कि "हमें दोनों बच्चों का विवाह कर देना चाहिए। माधव की नौकरी भी लग गई है, और फिर दोनों बचपन के मित्र हैं ।एक -दूसरे को चाहते भी हैं। "
इस पर माधव की माँ आग्नेय नेत्रों से तनिष्का की माताजी को घूरते हुए बोली
" मैं तो पहले ही समझ गई थी, कि आप अपनी बेटी को इसीलिए माधव के दाएँ- बाएँ रखती हो। ताकि वह ऐसे ही मेरे माधव को रिझाती रहे। गुड़ देखा नहीं कि आ गयीं मक्खियाँ मंडराने ।मैं अपने माधव का विवाह किसी रहीस खानदान में करूँगी । किंतु उनके ऐसे कठोर वचन सुनकर तनिष्का की माताजी हतप्रभ रह गयीं। उन्हें यह एहसास हो गया कि माधव की नौकरी लगने से माधव की माँ अहम के ऊंचे पर्वत पर जा बैठी हैं, जिसकी ऊँचाई से उन्हें रिश्तो के एहसास नजर ही नहीं आ रहे हैं।
दिन इसी प्रकार व्यतीत होते गए और तनिष्का भी स्वयं को परिवार का आर्थिक सहारा बनाने के लिए तैयार करती रही, किंतु माधव की भाँति उसका नसीब इतना अच्छा नहीं था। और वह दो नंबर से मेरिट में रह गई। माधव की माँ ने तनिष्का के परिवार से संबंध जैसे तोड़ ही लिया था।
जहाँ पहले दोनों परिवार मिलकर त्यौहार साथ में मनाते थे, वहाँ अब इतनी दूरियाँ पैदा हो गयीं, एक ही पड़ोस में रहते हुए दोनों एक -दूसरे के दुख -दर्द से भी अनजान होने लगे ।
तनिष्का की माँ को हृदयाघात का पहला झटका लगा, तब भी माधव की माँ उन्हें देखने नहीं आई। उनके इस व्यवहार ने तनिष्का के मन को अत्यधिक आहत कर दिया ,और उसने प्रण कर लिया कि, वह माधव से कभी भी विवाह नहीं करेगी ।चाहे उसकी माँ स्वयं ही क्यों ना कहें। और फिर एक दिन तनिष्का ने टी०जी०टी० परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। और फिर उसे एक विद्यालय में बालकों को पढ़ाने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ। वह आयोग द्वारा चयनित शिक्षकों की लिस्ट में प्रथम आई अब तनिष्का ने और भी कड़ी मेहनत करनी प्रारंभ कर दी। अध्यापन कार्य करते हुए उसने एक कोचिंग सेंटर में भी पढ़ाना शुरू कर दिया ।वह सायं कालीन कक्षा किया करती, और धीरे-धीरे तनिष्का शहर के प्रतिष्ठित और अच्छे प्रोफेसरों में गिनी जाने लगी।
अब तनिष्का के लिए अच्छे -अच्छे रिश्ते आने लगे ।और फिर कॉलेज के प्रोफेसर से तनिष्का का विवाह तय हो गया। विवाह में अभी 2 माह बाकी बचे थे। और फिर समय का ऐसा चक्र हुआ, कि भारत मंदी के दौर से गुजरने लगा। कर्मचारियों की छटनी होने लगी, और माधव की बैंक की नौकरी चली गई। अब माधव की माताजी को माधव के विवाह की फिक्र हो गई, और वे एक दिन तनिष्का के घर जा पहुँची। और उसकी माँ के मिन्नते करने लगीं
कि "आप अपनी तनिष्का मेरी झोली में डाल दीजिए , देखो न बहिन दोनों की जोड़ी कितनी जँचती है।"
किंतु तनिष्का की माँ ने नम्रतापूर्वक कहा कि" तनिष्का अपने फैसले स्वयं लेती है। आखिर अपने पैरों पर खड़ी है ।और फिर हम तनिष्का का रिश्ता तय कर चुके हैं। लड़के वालों को वचन भी दे चुके हैं। आप घर आए हमें बहुत अच्छा लगा। एक लंबे समय के अंतराल के बाद कम से कम यह संवाद हीनता खत्म हुई। घर आए अतिथि का अनादर करना ,मेरे स्वभाव में नहीं है, किंतु आपसे बस इतना ही कहना चाहूँगी ,कि अमीरी हो या गरीबी किंतु हमें अपने व्यवहार को मृदु रखना चाहिए। अहम की ऊँची -ऊँची दीवारें अपने आस-पास नहीं चिनवानी चाहिए, जिसमें से एक -दूसरे के दुख- दर्द को भी महसूस ना सकें।
जनपद बुलंदशहर
उत्तरप्रदेश
मौलिक एवं अप्रकाशित।
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