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लघुकथा : गाँव का बाल बाजार

लघुकथा : गाँव का बाल बाजार

 लघुकथा : गाँव का बाल बाजार
मेरा प्यारा गाँव! मैं इसे कैसे भूल सकता हूँ l शहर जाने के बाद गाँव की बहुत याद आती है, आती भी क्यों नहीं बचपन से 20 साल का लंबा समय गाँव में ही बिताया था l गाँव के दोस्तों के साथ बिताये वे प्यारे लम्हें और बचपन के खेल आज भी मन में फिर से तरोताजा हो जाती है l आज पूरे 1 साल बाद गाँव जाने का मौका मिला l शहर में कामकाज और व्यस्तता के चलते गाँव जाने में बहुत लम्बा समय हो गया l पहले 1-2 महीना में एकाध चक्कर गाँव के हो ही जाते थे l इस बार मम्मी की डांट और पापा का गुस्सा दोनो झेलने के लिए मैं तैयार था l इस बार 8 दिनो की छुट्टी लेकर घर जाकर रहने का मन बनाकर गाँव के लिए निकल गया l मन में मम्मी-पापा से मिलने की ख़ुशी और इतने दिन बाद घर आने का डर से मन में उधड-बुन चल रही थी l बस में बैठे-बैठे गाँव जाने, पुराने दोस्तों से मिलने, गप्पे लगाने की बातों से मुख पर प्रसन्नता भी साफ़ नजर आ सकती थीl इसी उधड-बुन के बीच 3 घंटे कैसे निकल गए पता ही नहीं चला l जैसे समय आज उड़ रहा हों और गाँव पहुँच गया l बस से उतरते ही गाँव का पुराना नीम जहाँ नीम के 4 पेड़ एक साथ खड़े थे जैसे वो मेरे ही आने का इन्तजार कर रहे हो l इन पेड़ों  की शीतल छाया में खेलकर ही तो बचपन का आनद लिया था मैंने; जो आज शहरी जीवन में दूर-दूर तक देखने को नहीं मिलती है l मैं पैदल घर की और चल दिया l चलते हुए एकाएक मैंरे पैर उत्सुकता पेड़ एक पेड़ के नीचे के दृश्य को देखकर दूर ही थम गए, बहुत सारे बच्चे उस पेड़ के नीचे कुछ कर रहे है l बच्चों को पेड़ के नीचे देखकर जानने का मन करने लगा कि आखिर हो क्या रहा है l मैं उनसे थोड़ी दूर एक पेड़ के नीचे बैठकर उनको खेलते देखने लगा l कहीं न कहीं में उन बच्चे में अपने आप को तलाश रहा था l  
आज इस पेड़ के नीचे बहुत चहल-पहल लग रही थी l नीम के पेड़ के नीचे बैठे बच्चे खेलने में बड़े व्यस्त नजर आ रहे थे l पेड़ के नीचे बहुत से बच्चे आज कुछ रोज के खेल से कुछ अलग खेल रहे थे l बच्चे अपने खेल में इतने मग्न थे कि उन्हें लग रहा था कि यह उनकी वास्तविक जिन्दगी का हिस्सा हो l आज नीम के पेड़ के नीचे बच्चों का “बाजार” लगा था जिसमे सभी बच्चे अपने-अपने अभिनय करने में लगे थे l इस बाजार में जिसमे बच्चों ने अपने-अपने घर से अपने खिलौने, सामान, कागज से बनी वस्तुयें, कंकड़ पत्थर के सामान, प्रतीकात्मक रूप से बना सामान से बाजार को सजाया गया था l सभी बच्चों को अपना-अपना अभिनय बाखूबी पता था l सब बाजार के खेल के लिए तैयार थे l सब बच्चे बहुत देर से तैयार बैठे थे परन्तु दूर से देखने से लग रहा था कि बच्चों को किसी का इन्तजार था l वह बार-बार इस तरफ आती मुख्य सडक को देख रहे थे l मैं भी उत्सुकतावश उस सडक की ओर देखने लगा l एकाएक बच्चों के चेहरे पर मुस्कान दिखने लगी l मैंने देखा बच्चों के बीच एक युवती आकर उनसे बाते कर रही है l अब मेरा भी मन बच्चों के बीच जाकर उनकी सारी गतिविधियाँ देखने का करने लगा l मैं पेड़ के नीचे पहुंचा सभी बच्चों ने नमस्ते कहकर अभिवादन किया l कुछ बच्चे मुझे पहचानते थे और कुछ बच्चों को मैं भी जानता था l
मैंने पूछा – क्या खेल रहे हो बच्चों ?
मीना – चाचा ! आज हम बाजार का खेल खेल रहे है, सुरभि दीदी हमें यह खेल के बारे में बताएगी l
सुरभि दीदी गाँव की एक स्वयं सेवक है जो बच्चों को खेल-खेल में पढ़ाने के बारे में समझती है, सुरभि दीदी, ने एक स्वयंसेवी संस्था से सीखा है कि खाली समय में बच्चों को पढ़ाई के बड़े-बड़े संक्रियाओं को कैसे समझा जाता है, सुरभि आज गाँव में बच्चों के लिए बाजार के अवधारणा को समझाने के लिए बच्चों को तैयार की है l
सुरभि दीदी ने अपने पास रखे बैग से बच्चों को कुछ प्रतीकात्मक नोट (पैसे) दिए और बाजार से सामान खरीदने के लिए कहा l इनमे से कुछ बच्चे खरीददार थे और कुछ बच्चे व्यापारी l बाजार में खरीदी बिक्री हो रही थी, सब सामान खरीदते और दूकानदार को पैसे देते जितने पैसे का सामान था इतने पैसे लेकर बाकि वापिस करते l इनमे से बहुत से दुकानदार बने बच्चों बच्चों को हिसाब नहीं आ रहा था l सुरभि दीदी बच्चों हिसाब में मदद कर रही थी l कंही बच्चे खुद दूसरे बच्चों को हिसाब सिखा रहे थे l कुल मिलाकर बच्चे बाजार के खेल में डूब से गए थे l ये बनाबटी बाजार जरुर था परन्तु बच्चे इसे सजीवता से जी रहे थे और खेल रहे थे l खिलौना झूट-मूट का ही सही परन्तु बच्चों की वास्तविक ख़ुशी के लिए काफी था l बच्चे को पता ही नहीं चल रहा था कि इस बाजार के खेल में वह साधारण जोड़, घटाना, गुणा, भाग प्रतिशत आदि को सहजता से कर रहे है l पूरा 1 घंटे ये बाजार चलता रहा अब खरीदार बच्चों के पास सामान अधिक और पैसे ख़त्म हो गए थे वहीं दुकानदार बने बच्चों के सामान ख़त्म एवं पैसे ज्यादा इकठ्ठा हो गए थे l सभी में आपने-आपने किरदार के अनुसार उमंग एवं चमक दिख रही थी l
यह सब देखकर मुझे आश्चर्य के साथ ख़ुशी हुई कि बच्चों कठिन अवधारणायें जो सहजता से समझ नहीं आती है इसे इस प्रकार खेल के माध्यम से समझाया जा सकता है l सुरभि ने बताया की उनके गाँव के बच्चों की पढ़ाई के लिए एक स्वयंसेवी संस्था बच्चो की पढ़ाई पर काम करती है उनके कार्यकर्ता हमारे गाँव में आते और इस प्रकार की पढ़ाई के बारे में समझाते है l मुझे पढ़ना और पढ़ाना पसंद है इसलिए मैं बच्चों को एक घंटे संस्था के बताये अनुसार पढ़ाती हूँ l इससे बच्चे में भाषा, संख्यात्मक, बौद्धिक, मानसिक, सामाजिक, तार्किक आदि कौशलो का विकास होता है l हर दिन कुछ नई-नई गतिविधियों के माध्यम से बच्चों को खेल के माध्यम से सिखाया जाता है l सुरभि की इस गरिविधि से बच्चे बहुत खुश दिखाई दे रहे थे l बच्चों को रोज सुरभि दीदी का इन्तजार रहता है l
सुरभि की मदद से बच्चों में पढ़ने में रूचि बढ़ गई है l अब सभी बच्चे स्कूल जाते है एवं स्कूल में भी मन लाकर पढ़ाई करते है l बच्चों में नई-नई सीख को सिखने की ललक एवं उमंग साफ़ दिखाई देता है l बच्चों को इस प्रकार सीखते देख मुझे भी मेरा बचपन उन्ही बच्चों में नजर आने लगा l मैंने वहाँ बिताये 2 घंटे को वस्तिवता में जिया एवं अपने बचपन से जोड़कर देखने लगा कि कास! उस समय में मुझे भी कोई सुरभि दीदी ऐसे खेल खिलाती तो आज उसका स्थान और बेहतर होता l ये सब में बहुत समय निकल गया, जब मैं अपने को बच्चों में खोज रहा था, बच्चों को देख पुरानी यादे तरोताजा हो गई l कुछ देर बाद जब इस तन्द्रा से बहार आया तो देखा पापा मेरे सामने खड़े बड़ी उत्सुकता से निहार रहे थे l पापा बोले – श्याम ! कब आये तुम, और यहाँ क्या कर रहे चलो माँ बहुत देर से इन्तजार कर रही है l मैं इस अनोखी और सजग शिक्षा के बारे में सोचते हुए पापा के साथ घर की ओर निकल गया l
 
लेखक- श्याम कुमार कोलारे

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