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डॉ भीमराव आंबेडकर : दलितों के मसीहा

डॉ भीमराव आंबेडकर : दलितों के मसीहा

डॉ भीमराव आंबेडकर : दलितों के मसीहा  



आज आंबेडकर जयंती के दिन हमें इस बात को नए सिरे गांठ बाधनी है कि आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी ही सिर्फ मानव-जाति की सबसे बड़ी समस्या है और इससे पार पाने के लिए प्राचीन काल में गौतम बुद्ध-मजदक से लगाये आधुनिक युग में मार्क्स-माओ-मंडेला जैसे ढेरों महामानवों का उदय हुआ एवं करोड़ों लोगों ने अपना प्राण बलिदान किया.सभ्यता के शुरुआत से ही इस समस्या की उत्पत्ति जिनके हाथों में सत्ता की बागडोर रही, उनके द्वारा शक्ति के  स्रोतों(आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक)का विभिन्न तबकों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे के कारण होती रही है.किन्तु सत्ताधारियों द्वारा जिस तरह शक्ति के स्रोतों से दलितों को वंचित करने का जघन्य कार्य अंजाम दिया गया वह मानव जाति के इतिहास की बेनजीर घटना है .कुछ लोग कह सकते हैं कि ‘दास-प्रथा’ के तहत कई अन्य मानव समूहों को दलितों की भांति ही वंचित होना पड़ा है.किन्तु दास-प्रथा के गुलाम न तो दलितों की भांति शक्ति के सभी स्रोतों से बहिष्कृत रहे और न ही उनकी मानवीय सत्ता मानवेतर प्राणी जैसी रही.ऐसे लोगों को मानवीय मर्यादा और शक्ति से लैस करने की डॉ आंबेडकर जैसी चुनौती इतिहास ने किसी भी महामानव के समक्ष पेश नहीं की.उन्होंने राजनीति को हथियार बना कर उसका सामना सफलतापूर्वक किया
  ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्रों की भांति दलित ,जिन्हें भारत में सामाजिक क्रांति के प्रणेता ज्योतिबा फुले अतिशूद्र कहा करते थे एवं संविधान में अनुसूचित जाति के रूप चिन्हित किया गया है ,हिंदू-धर्म की प्राणाधार उस वर्ण-व्यवस्था की उपज हैं जो मुख्यतः शक्ति के स्रोतों(आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक)और मानवीय मर्यादा की वितरण-व्यवस्था रही. वैदिक आर्यों द्वारा  प्रवर्तित वर्ण-व्यवस्था में दलितों के लिए अध्ययन-अध्यापन,शासन –प्रशासन,सैन्य वृत्ति,भूस्वामित्व,व्यवसाय-वाणिज्य और आध्यात्म अनुशीलन का कोई अधिकार नहीं रहा.यही नहीं हिंदू समाज  द्वारा अस्पृश्य रूप में धिक्कृत व बहिष्कृत दलितों को अच्छा नाम रखने या देवालयों में घुसकर ईश्वर की कृपालाभ पाने तक के अधिकार से भी पूरी तरह वंचित रखा गया.विगत साढ़े तीन हज़ार वर्षों में बौद्ध काल को छोड़कर,नर-पशुओं के लिए शिक्षक,पुरोहित,भू-स्वामी,राजा,व्यवसायी इत्यादि बनाने के सारे रास्ते पूरी तरह बंद रहे.
  वैदिक भारत में स्थापित वर्ण-व्यवस्था को सर्वप्रथम चुनौती गौतम बुद्ध की तरफ से मिली.उन्होने  ब्राह्मणवादी वेद मन्त्र,कर्मकांड की निंदा की.वेद मन्त्र को उन्होंने पथ-हीन जंगल और जल-हीन मरूस्थल करार देते हुए ब्राह्मणों को चुनौती दी कि जन्म से न तो कोई ब्राह्मण ,न क्षत्रिय-वैश्य और न ही शूद्र होता है.जन्म मात्र से न तो कोई बड़ा है और न छोटा,सभी मानव समान हैं.उनके प्रयत्नों से वर्ण-व्यवस्था में शिथिलता आई.वर्ण-व्यवस्था में शैथिल्य  का मतलब शक्ति के जिन स्रोतों से दलितों को वंचित किया गया था उनमें उनको अवसर मिलने लगा.किन्तु यह स्थिति चिरस्थाई न बन सकी.अंतिम बौद्ध सम्राट बृहद्रथ की पुष्यमित्र शुंग द्वारा हत्या के बाद के हिन्दुराज में वर्ण-व्यवस्था नए सिरे से सुदृढ़ हो गयी.इसके सुदृढ़ होने के फलस्वरूप दलितों को आगामी दो हज़ार सालों तक शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत हो कर  रह जाना पड़ा.
   पुष्यमित्र शुंग द्वारा प्राचीन काल में हिन्दुराज की  स्थापना किये जाने के बाद वर्ण/जाति व्यवस्था में मानवेतर बने दलितों को थोड़ी राहत मध्यकाल मंा ही मिल पाई.उक्त काल में सवर्णों और शूद्रातिशूद्रों में कई ऐसे  संतों का उदय हुआ जिन्होंने अपनी भक्तिमूलक रचनाओं के जरिये जातिभेद का विरोध करने सबल प्रयास किया.इनमें उत्तर भारत में रामानंद,रैदास,कबीर,नानकदेव ;पूरब में चैतन्य और चंडीदास;पश्चिम में चोखामेला,नामदेव,तुकाराम और दक्षिण में निबारका और बसव का नाम प्रमुख है.किन्तु इन संतो के  प्रयासों से दलितों को भावनात्मक रूप से राहत भले ही मिली,शक्ति के स्रोतों में कुछ नहीं मिला.उनके प्रयासों पर निराशा व्यक्त करते हुए बाबासाहेब डॉ.आंबेडकर ने  ठीक ही लिखा है. 
 ‘किसी भी संत ने जाति-प्रथा पर चोट  नहीं की, वरन इसके विपरीत वे जाति-प्रथा में विश्वास रखते थे.उनमें से अधिकांश उसी जाति के सदस्य के रूप में मृत्यु को प्राप्त हुए जिसमें वे पैदा हुए..उन्होंने मानव समानता के उपदेश नहीं दिए.इसके विपरीत उन्होंने शास्त्रों में विश्वास करना सिखाया.’संतो का भक्ति आन्दोलन दलित दृष्टिकोण से पूरी तरह व्यर्थ था, इसका अनुमान ब्रितानी साम्राज्य पूर्व दलितों की स्थिति से लगाया जा सकता है. अंग्रेजी हुकूमत कायम होने से पूर्व दलित आर्थिक-राजनीतिक क्षेत्र से पूरी तरह बहिष्कृत थे ही,बहुत से अंचलों में उन्हें गले में थूकदानी लटका कर चलना पड़ता था ताकि उनके थूकने से पृथ्वी अपवित्र न हो जाय.रास्तों से गुजरते समय उन्हें अपना पदचिन्ह मिटाने के लिए कमर में झाड़ू बंधकर चलना पड़ता था.उन्हें उस समय घरों से बाहर निकलने की मनाही थी जब व्यक्ति की परछाई दीर्घतर हो जाती है.इसी तरह कई इलाकों में उनकी महिलाओं को नाभि के ऊपर वस्त्र धारण की मनाही थी.
    बहरहाल जिन दिनों भारत के क्रन्तिकारी कहे जानेवाले संत ईश्वर की नज़रों में सबको एक बताने का उपदेश करने में निमग्न थे ,उन दिनों यूरोप के संत मार्टिन लूथर के सौजन्य से वहां वैचारिक क्रांति कि शुरुआत हुई जिसे रेनेसां (पुनर्जागरण) कहते हैं.परवर्तीकाल में अंग्रेजों के सौजन्य से 19 वीं सदी के उपनिवेशवादी काल में भारत में नवजागरण की शुरुआत हुई.राष्ट्रीयता और  सामाजिक परिवर्तन का बीजारोपड़ इसी काल में हुआ,इसी काल में अंग्रेजी पढ़े -लिखे आभिजात्य वर्ग में स्त्री-सुधार के साथ अन्य सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों से जूझने की भावना पैदा हुई.बंगाल के राजा राममोहन से शुरू हुई समाज सुधार की यह धारा पूरब से पश्चिम,उत्तर से दक्षिण दिशाओं में प्रवाहित हुई. राजा राममोहन राय द्वारा प्रारम्भ किये गए समाज सुधार कार्य को केशव चन्द्र सेन,प्रिंस द्वारकानाथ  ठाकुर ,महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर,ईश्वर चन्द्र विद्यासागर,स्वामी दयानंद-विवेकानंद-रामलिंगम,रानाडे,आरजी भंडारकर,जी.जी अगरकर,एनजी चंदावरकर,गोखले-गाँधी इत्यादि जैसे सवर्ण समाज में पैदा हुए महान लोगों ने आगे बढ़ाया.पर ,ये लोग बुद्धि ,तर्क ,सत्य ,स्वतंत्रता,समानता जैसे योरोपीय दर्शन अपना कर सती-विधवा-बालिका विवाह-बहुविवाह-प्रथा और अन्य कई  सामाजिक बुराइयों के खिलाफ तो अभियान चलाये किन्तु ‘अछूत-प्रथा ‘ पर लगभग निर्लिप्त रहे.अस्पृश्यता के खिलाफ सीधा संघर्ष फुले ने ही शुरू किया,उन्होंने जहाँ अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले के के साथ मिलकर दलितों को शिक्षित करने का ऐतिहासिक कार्य किया वहीँ सत्यशोधक समाज के माध्यम से उन्हें अंध-विश्वास मुक्त करने में ऐतिहासिक योगदान दिया.उनके अतिरिक्त शुद्रातिशूद्र समाज में जन्मे नारायण गुरु,अयांकाली,संत गाडगे,सयाजी राव गायकवाड, शाहूजी महाराज,पेरियार जैसे और कई लोगों ने दलितों की दशा में बदलाव लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया.
 किन्तु उपरोक्त महामानवों के प्रयासों के बावजूद सदियों से सभी मानवीय अधिकारों से शून्य अस्पृश्यों की स्थित पूर्ववत रही.उन्हें सवर्णों को अपनी छाया के स्पर्श तक से बचाते हुए गांव से अलग –थलग रहना पड़ता था.वे न तो धन-संपत्ति का संचय कर सकते थे और न ही जेवरात व अच्छे  वस्त्र धारण कर सकते थे.हिंदुओं के समक्ष खाट पर बैठने ,दुल्हे को घोड़ी पर चढाने की हिमाकत नहीं कर सकते थे.मंदिरों में प्रवेश निषिद्ध था ही ,शिक्षा का कागजों पर अधिकार होने के बावजूद व्यवहारिक जीवन में उसका उपयोग दुसाहस का काम समझा जाता  था.सरकारी नौकरियों  तथा राजनीति की विभिन्न संस्थाओं में उनकी कोई भागीदारी नहीं थी.ऐसी विषम परिस्थितियों में डॉ आंबेडकर का उदय हुआ.उनके समक्ष दलितों को वर्ण-व्यवस्था के उस अभिशाप से मुक्ति दिलाने की चुनौती थी जिसके तहत वे  हजारों साल से शक्ति के सभी स्रोतों से वंचित थे.कहना न होगा उन्होंने इस चुनौती का नायकोचित अंदाज़ में सामना करते हुए दलितों को शक्ति से लैस करने का असंभव सा कार्य कर दिखाया.
  यह डॉ.आंबेडकर के ऐतिहासिक प्रयासों का परिणाम है कि आज दलित शक्ति के सभी स्रोतों तो नहीं पर,आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में अपनी कुछ उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हुए हैं.विगत वर्षों में हमने एक दलित को राष्ट्रपति; कुछेक  को लोकसभा अध्यक्ष और मुख्यमंत्री तथा कईयों को कबीना मंत्री बनते देखा है.हाल के वर्षों में कुछ को बसपा-भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के अध्यक्ष और विश्व विद्यालयों का उप कुलपति भी बनते देखा गया है.इस बीच साहित्य,पत्रकारिता और नौकरशाही के क्षेत्र में भी कई दलितों ने उल्लेखनीय छाप छोड़ी है.आज की तारीख में दलित उद्योगपतियों के संगठन ‘डिक्की’ की सबल मौजूदगी बताती है की हजारों वर्ष पूर्व धर्म के आवरण में तैयार वर्ण-व्यवस्था का अर्थशास्त्र काफी हद तक ध्वस्त हो चुका है.हालाँकि जन्मगत आधार पर वंचना का शिकार बनाये गए दुनिया के दूसरे समुदायों की तुलना में आज भी दलित शक्ति के स्रोतों से काफी हद दूर हैं;अभी भी इस दिशा में उन्हें काफी दूरी तय करनी है.बावजूद इसके जड़ भारतीय समाज के मानवेतरों में जो बदलाव आया है उसे कुछ हद तक क्रान्तिकारी कहा जा सकता है.

संकलन 
श्याम कुमार कोलारे 
९८९३५७३७७०, छिंदवाड़ा

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