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मातृभाषाई अस्मिता बोध का होना और इसकी रक्षा के लिए आगे आना सबसे जरुरी

मातृभाषाई अस्मिता बोध का होना और इसकी रक्षा के लिए आगे आना सबसे जरुरी

माँ के द्वारा बोली जानी वाली भाषा ही मातृभाषा है। इसका संबंध गर्भनाल‌ के समय से होता है। मातृभाषा माँ के दुध जितना ही महत्‍वपूर्ण है। मातृभाषाई अस्मिता बोध सामाजिक और भाषाई पहचान के साथ साथ अपनी विरासत के प्रति सम्पूर्ण समर्पण को भी दर्शाता है।मातृभाषा ही हमारे पूर्वजों के संस्कृति और संस्कारों की संवाहक है। इसके बिना किसी भी सामाजिक  संस्कृति की कल्पना करना बेईमानी होगी!

मातृभाषा हमारे भावनात्मक अभिव्यक्ति की प्रबल और सहज साथी होती है।17 नवंबर 1999 को यूनेस्को द्वारा अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस को स्वीकृति दी गई थी। 21 फरवरी 2000 से प्रति वर्ष अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। अपने मातृभाषा की जानकारी हर व्यक्ति को होनी चाहिए। मातृभाषा ही हमारी पहचान है। फिर इसे बोलने में शर्म कैसा? हमें तो मातृभाषा बोलते हुए गर्व की अनुभूति होनी ही चाहिए। हमें अपनी हर पहचान पर गर्व और गौरव करना चाहिए।

अगर हम अपने बच्चों में मातृभाषा के प्रति अनुराग नही पैदा कर पा रहे हैं तो यह हमारी विफलता है। मातृभाषा सिर्फ व्यक्ति को अपनी संकृति और धरोहर से ही नही जोड़ता हैं बल्की उसे आगे ले जाने में भी सहायक होता है।

अनेक शोधों ने यह प्रमाणित किया है कि जीवन के आरंभिक वर्षों में अपनी मातृभाषा  में पढ़ने वाले बच्चों में सर्वश्रेष्ठ सर्वांगीण विकास के साथ साथ सभी विषयों की समझ भी बेहतर विकसित होती है।

अकसर वैसे लोग जो जिनमें मातृभाषाई अस्मिता बोध नही होता है वे अपनी सांस्कृतिक विरासत, जड़ों, ज्ञान-परंपराओं, से कटाव महसूस करते पाये जाते हैं।

गांधी जी विदेशी माध्यम के कटु विरोधी थे। उनका मानना था कि विदेशी माध्यम बच्चों पर अनावश्यक दबाव डालने, रटने और नकल करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करता है तथा उनमें मौलिकता का अभाव पैदा करता है। यह देश के बच्चों को अपने ही घर में विदेशी बना देता है। उनका कथन था कि यदि मुझे कुछ समय के लिए निरकुंश बना दिया जाए तो मैं विदेशी माध्यम को तुरन्त बन्द कर दूंगा।

गांधी जी के अनुसार विदेशी माध्यम का रोग बिना किसी देरी के तुरन्त रोक देना चाहिए। उनका मत था कि मातृभाषा का स्थान कोई दूसरी भाषा नहीं ले सकती। उनके अनुसार, "गाय का दूध भी मां का दूध नहीं हो सकता।"

वर्ष 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में 1,652 भाषाएं दर्ज थीं। 1971 आते-आते यह आंकड़ा 808 रह गया। पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया, 2013 के अनुसार पिछले 50 वर्षों में 220 से अधिक भारतीय भाषाओं को खो दिया गया है और 197 और भाषाएं लुप्तप्राय होने के कगार पर हैं।वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार और भारत सरकार के आधिकारिक आंकड़ों के हिसाब से देश में 121 आधिकारिक भाषाएं हैं। वहीं पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार भारत में 780 भाषाएं मौजूद हैं। लगभग 100 और भाषाओं के अस्तित्व में होने की संभावना भी जाहिर की गई है। 

भूमंडलीकरण के इस दौर में स्थानीयता को बचाना दिन प्रतिदिन चुनौतीपूर्ण होते जा रहा हैं।नई शिक्षा नीति-2020, 34 वर्षों बाद व्यापक स्तर पर भाषा के विकास के सवालों को उठाती है जो उससे पूर्व में 1968 के कोठारी आयोग और 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मुखर होकर नहीं उठाए गए थे। भारत में शिक्षा समवर्ती सूची में आती है। इसलिए यहाँ राज्य सरकारों का दायित्व और बढ़ जाता है कि अपने यहाँ वे सभी मातृभाषाई चेतना को बढ़ावा दें उसमें प्राथमिक शिक्षा शुरु करवाये! 

महात्मा गाँधी ने वर्धा शिक्षा योजना 1937 में शिक्षा में मातृभाषा की अनिवार्यता पर बात कही थी। उनकी असामयिक मृत्यु के बाद इधर किसी ने ध्यान ‌नही दिया। खैर नई शिक्षा नीति-2020 में मातृभाषाओं को पुन: जीवित करने का प्रयास किया गया है। इसके साथ साथ हम‌ सभी को भी इसकी उपयोगिता और अनिवार्यता तो समझना होगा यही समय की माँग है।सभी को यह समझना चाहिए कि मातृभाषाई अस्मिता बोध की समझ होना जीवन जीने जितना ही जरुरी है।


(लेखक संस्कार भारती उत्तर बिहार प्रदेश के मंत्री और भोजपुरी लिटरेचर फेस्टिवल के संयोजक हैं।)

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