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आलेख - बस्ता के बोझ तले सिसकता बचपन

आलेख - बस्ता के बोझ तले सिसकता बचपन


बस्ता के बोझ तले सिसकता बचपन

“भविष्य उज्ज्वल करने वाली पुस्तकें अगर स्कूली बच्चों पर सितम ढाने लगे; तो उन पुस्तकों पर बच्चे का ध्यान कैसे लगे!”

शिक्षा जीवन की एक ऐसी महत्वपूर्ण कड़ी है जिसके सहारे मनुष्य ज्ञान के चक्षु खोलकर जीवन में उज्जवल मुकाम पाने के काबिल हो पाता है l कहते है बिन ज्ञान के मनुष्य वानर सामान है l मनुष्य में यह ज्ञान उनके शैशवावस्था अवस्था से ही प्रारंभ हो जाता है l कुछ शोध में देखा गया है कि बच्चों में ज्ञान का संचार माँ को कोख से ही प्रारंभ हो जाता है l पौराणिक कथाएँ में भी बहुत सी जगह इसका उल्लेख मिलता है l महाभारत में अभिमन्यु ने चक्रव्हू युद्ध नीति माता के गर्भ में रहते हुए ही प्राप्त कर ली थी l यानि कह सकते है की बच्चे शैशवावस्था से अपने जीवन पर्यन्त सीखता रहता है l माँ-पिता अपने बच्चों को ज्ञान एवं जीवन कौशल को सिखाने के लिए अपनी पूरी कोशिश करते है, उनसे जो बन पड़े वह करने से पीछे नहीं हटते है l इसी होड़ में बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए बच्चों को किसी नामी-ग्रामी निजी स्कूल में डाल देते है, और बस वहाँ से शुरू हो जाती है बच्चों की जिन्दगी की असली परीक्षा l यदि आपको किसी प्रसिद्द स्कूल में पढ़ना है तो जाहिर सी बात है वह हर किसी के घर के पास तो शायद होगा नहीं, उसके लिए बच्चों को मीलो दूर स्कूल तक जाना होगा; यदि स्कूल पास है तो मोटी-मोटी पुस्तकों से लबालब भरा बस्ता कन्धों पर लाद कर निकलना पड़ता है या बसों में घंटो सफ़र करने के बाद, स्कूल के गेट से कक्षा तक पहुँचते-पहुँचते बेचारा अधमरा सा हो जाता है l अपनी यह दशा बेचारा बच्चा किसे बताये! अपने उन शिक्षकों को जिसने ये वजन लादकर लाने के लिए लिए मजबूर किया है या उन शिक्षा के ठेकेदारों को जिन्होंने यह मोटी-मोटी पुस्तकों के लिए बाजार सजाकर रखा है या नीति निर्धारण करने वाले शिक्षाविदों को जिन्होंने बच्चों की शिक्षा के नाम पर वजनी पुस्तक नीति के लिए सारे शिक्षण तंत्र को मंजूरी दे रखी है l

बच्चे तो आखिर बच्चे है मजबूरी में बेचारे अपने बस्ते को टांगे, झुकाए कंधो के एक कुली नुमा मुद्रा में चले जाते है; बस मन में आता होगा कास ये बस्ता नहीं नहीं होता हो कुछ उछल-कूद कर लिए होते l कभी स्कूल से पास से गुजरकर देखिये, इन नन्ही-नन्ही जान के पीठ पर पुस्तकों का वजन देखकर आपको अहसास होगा कि पीठ पर टंगे बस्ता का बोझ उन्हें कितना दुःख देता होगा l हाय! मासूम बचपन अभी से इतना बोझ ? अभी तो उसे जिन्दगी के कई बड़े-बड़े बोझ उठाना है l अभी तो उसे अपने पंख को खोलकर ऊँची उड़ान भरना है; परन्तु उसे यह वजन उड़ने नहीं दे रहा है, आखिर क्या करे बचपन l यहाँ बच्चे का बचपन एवं उसके सेहत की बात को ध्यान में रखकर सोचे तो बच्चों का ये हनन किया जाने जैसे है l क्या बच्चा अपनी इस छोटी से उम्र से ही अपने आप को शारीरक रूप से मजबूत बना रहा है या कमजोर? प्रसिद्ध बाल रोग विशेषज्ञों की मानें तो, भारी स्कूल बैग बच्चों की सेहत पर बुरा प्रभाव डाल सकता है। उन्होंने कहा कि भारी स्कूल बैग से बच्चों की पीठ पर बोझ पड़ता है जिससे उनको पीठ दर्द होना शुरू हो जाता है। इस कारण बच्चों को भविष्य में कई गंभीर बीमारियों का शिकार होना पड़ सकता है। भविष्य उज्ज्वल करने वाली पुस्तकें ही अगर स्कूली बच्चों पर सितम ढाने लगे तो बच्चे उन पर ध्यान कैसे लगा पाएंगे।

पुस्तकों के बोझ को देखते हुए एक पैटर्न समझ में आता है कि बस्ता में जितनी पुस्तके, स्कूल की उतनी ही मोटी फीस l यानि  मोटी फीस के चक्कर में स्कूल बच्चों के बस्ता का बोझ बड़ रहा है l निजी स्कूल बस्ते का अधिक से अधिक बोझ लादने में आपस में प्रतिस्पर्धा करते है । इनमें से अधिकांश सीबीएसई के साथ संबद्ध होने के कारण एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकें लागू तो करते हैं, मगर लगभग हर विषय में निजी प्रकाशकों की कम से कम दो-तीन पुस्तकें और भी खरीदते है । चूंकि अधिकांश माता-पिता आर्थिक रूप से संपन्न ही होते है इसलिए वे बच्चों का भविष्य बनाने के लिए इस बोझ को सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। माध्यम या गरीब परिवार अपने आसूं को दबाये मजबूरी वश ये पुस्तके खरीदने के लिए मजबूर है आखिर उन्हें अधिक से अधिक अंक चाहिए, लेकिन बच्चे पर क्या बीतती है इससे वे चिंतित नहीं होते है ।

शिक्षाशास्त्रियों का मानना है कि 4 से 12 साल तक की उम्र के बच्चे के व्यक्तित्व के विकास का स्वर्णिम समय होता है इसलिए इस दौरान रटंत पढ़ाई का बोझ डालने के बजाय सारा जोर उसकी रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता विकसित करने के लिए दे तो इनकी मानसिक और बौद्धिक क्षमता का विकास हो सकता है। आज के परिपेक्ष में बात करे तो 12 साल की आयु के बच्चों को भारी स्कूली बस्ते की वजह से पीठ दर्द का खतरा पैदा हो गया है। पहली कक्षा में ही बच्चों को छः पाठ्य पुस्तकें व छः कापियां दे दी जाती हैं। मतलब पांचवीं कक्षा तक के बस्ते का बोझ करीब आठ किलो हो जाता है। बच्चों के बस्ते और भारी भरकम पाठ्यक्रम; इससे बच्चों को पीठ, घुटने व रीढ़ पर असर पड़ रहा है। आजकल बहुत सारे बच्चे इसके शिकार हो रहे हैं। बस्ते के बढ़ते बोझ से निजी स्कूलों के बच्चे खेलना भी भूल रहे हैं। व्यक्तित्व की क्षमता के अनुसार पढाई और पाठ्यक्रम का बोझ हो तो ये नित नए आयाम रचेंगे पर बस्ते के शिकंजे मे एक बार इनका प्रदर्शन आप अपने मनोरूप करवा लेंगे पर जीने के लिए जी नही पाएंगे हमारे अपने नोनिहाल। हमे शैक्षिक मनोवैज्ञानिक नवाचारों के साथ चलना होगा और खुलकर इस विषय पर बात करनी होगी। आखिर ये हमारे अपने परिवार, अपने देश के भविष्य का सवाल है। सरकार एवं शिक्षा तंत्र को इस बात को अवश्य संज्ञान में लाना चाहिए क बस्ता का बोझ कम कर बच्चों को कम संसाधन में बेहतर शिक्षा देकर उनके सर्वांगीण विकास के लिए सक्षम करें l


लेखक
श्याम कुमार कोलारे
सामाजिक कार्यकर्त्ता, छिन्दवाड़ा (म.प्र.)
shyamkolare@gmail.com
Mobile- 9893573770

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