-->
बच्चे, हम और परीक्षा परिणाम

बच्चे, हम और परीक्षा परिणाम

एक : स्कूल की एक मीटिंग में एक माँ अपने बच्चे के सामने ही रो पड़ी। कारण ! बच्चा अच्छा स्कोर नहीं कर पा रहा था। चालीस से पचास विद्यार्थियों के साथ लगभग तीस अभिभावक बैठे हुए थे। विषयाध्यापक के अलावा प्रिंसिपल भी थीं। देखते ही देखते वह बच्‍चा भी रो पड़ा। विषयाध्यापक को उठकर माँ के पास जाना पड़ा। दिलासा देना पड़ा कि सारे दिन एक समान नहीं होते। पढ़ाई में आगे बढ़ना और पीछे रहना सामान्य प्रक्रिया है।


इसका मतलब है : मैं इसे दूसरी नजर से देखता हूँ। हर बच्चे के लिए उसकी माँ दूसरे बच्चों की माँ से नायाब होती है। हर बच्चा यह मानता है और यह सही भी है। क्‍या वह बच्‍चा माँ के ऐसे व्यवहार से आहत न हुआ होगा? क्या बच्‍चा और उसकी माँ  के लिए यह एक अवसर मात्र था? क्‍या यह कभी न भूलने वाली घटना नहीं?


दो : स्कूल ने एक विद्यार्थी के पिता को बुलाया और कहा कि आपका बच्चा यूनिट टेस्ट को हलके में लेता है। यहाँ तक कि परीक्षाओं को भी वह मजाक समझता है। बड़ी लापरवाही में रहता है। चेहरे में किसी तरह की चिन्ता और भाव नहीं दिखाई देते। ऐसा लगता है कि वह अपने परफॉरमेंस को लेकर संजीदा नहीं है। पिता ने जवाब दिया,‘‘मैं भी अपने बच्चे के अंकों को और पोजिशन को लेकर चिन्‍ता नहीं करता। मैं बस आपसे यह चाहता हूँ कि उसे सीखने के भरपूर अवसर मिलें। वह जो जानना चाहता है उसे उसमें मदद की जाए। स्कूल ने कहा यदि वह फेल हो गया तो? पिता ने जवाब दिया,‘‘आप उसके लिखे हुए पर ही अंक देंगे न? हम संतुष्ट रहेंगे।’’


इसका मतलब है : मुझे लगता है ऐसा साहस हर पिता (और माँ) को करना चाहिए।


तीन : बच्चे की डायरी में स्कूल ने लिखा, ‘ये बहुत बोलती है। सवाल पर सवाल करती है। शान्‍त रहना इसे नहीं आता। अपनी मर्जी से सवालों के जवाब लिखती है।’ बच्ची की माँ ने स्कूल से बात की और अपना पक्ष रखा कि,  ‘हम चाहते हैं हमारी बच्ची सवाल का एक ही जवाब न माने। वह अपने अनुभवों से चीजों के प्रति अपना नजरिया बनाए। शान्‍त रहना हमने सिखाया नहीं। हम चाहते हैं कि वह सपने देखते समय भी बोले। हमें पता तो चले कि हमारी बच्ची सपनों में क्या-क्या देखती है।’

इसका मतलब है : मुझे भी यह लगता है कि स्कूल बच्चे को विस्तार देने के लिए है कि संकुचित करने के लिए है? ऐसा क्यों है कि अधिकतर स्कूल बच्चे को बुत बने रहने देना चाहते हैं। बच्चा तभी बोले जब उसे बोलने को कहा जाए। भले ही बोलने के अवसर देने वाला कोई पीरियड ही नहीं होता।


चार : होमवर्क करके न लाने पर अभिभावक ने साफ कह दिया कि हमारे बच्चों को गृहकार्य न दिया जाए। वह स्कूल में जितना पढ़ता है, लिखता है, वही बहुत है। हम हमारे बच्चों को घर में घर का काम जानने में मदद करते हैं। हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे स्कूल बैग के साथ पूरा स्कूल घर लेकर आएँ।

इसका मतलब है : यह प्रगतिशील और बच्चे की नैसर्गिक परवरिश करने वाला परिवार है। आम परिवार ऐसा कब सोचेगा?

पाँच : परीक्षा नजदीक थी। एक स्कूल के कई विषयों के शिक्षक चालीस-एक बच्चों के बोर्ड के इम्तिहान में अपना भाविष्य देख रहे थे। एक शिक्षक ने कहा, ‘ इस बार मेरा रिजल्ट पचास फीसद ही रहने वाला है।’ दूसरे शिक्षक ने कहा, ‘ये तो बहुत कम हो रहा है। मुझे लगता है कि साठ तक रहेगा।’ तीसरे शिक्षक ने कहा,‘नहीं। अस्सी तो रहना ही चाहिए। रहेगा।’ चौथे ने कहा,‘अस्सी परसेंट वाले तो दो ही बच्चे हैं।’
पाँचवे ने कहा,‘दस बच्चे तो निश्चित फेल हैं। कहे देता हूँ।’

परिणाम आया। एक भी बच्चा फेल न था। पचास फीसद की घोषणा करने वाले शिक्षक के विषय का परिणाम अस्सी फीसद रहा था। जिसने अस्सी परसेंट की घोषणा की थी उसके विषय में तीस फीसद बच्चे ही पास हुए थे। वहीं अस्सी परसेंट अंक लाने वाले बच्चे बीस से अधिक थे।

इसका मतलब है : क्या शिक्षक साल भर की पढ़ाई कराते-कराते विद्यार्थियों को पूरा समझ पाते हैं? क्या पहले से ही परिणाम पर बात करना समझदारी है? क्या शिक्षक हर बार अपने बच्चों का सटीक नहीं तो औसत मूल्यांकन कर लेते हैं?

ऐसे कई उदाहरण हैं जो गाहे-बगाहे रोजमर्रा के जीवन में हमारे आसपास मिल जाते हैं। बहरहाल मैं आज तलक नहीं समझ पाया हूँ कि इम्तिहान, एग्जाम, परीक्षा, पोजिशन, रैंक, परसन्टेज, ग्रेड आदि का असल जिन्दगी से जुड़ाव है भी या नहीं। यदि ‘कुछ तो आँकने-जाँचने का तरीका हो’ के मसले को एक तरफ रख दें तो मुझे लगता है कि ये भारी-भरकम शब्द खुशी से अधिक गम देते हैं। बेचैनी पैदा करते हैं। घबराहट का ग्राफ बड़ाते हैं। निराशा के घाव देते हैं। कुण्ठा का घेरा डालते हैं। मनोबल को गिराते हैं। खुद को कायर मान लेने वालों की तादाद बढ़ाते हैं। इससे आगे देखें तो यह अवसाद से आगे जाकर घर छोड़ने से लेकर जीवनलीला तक समाप्त करा देते हैं।

हर साल खासकर बोर्ड परीक्षा के परिणाम आने के एक दिन बाद टी॰वी॰चैनल रोते-बिलखते परिजनों को दिखाते हैं, जिनके बच्चे फेल होने के चलते अपनी अनमोल   जिन्दगी को अलविदा कह देते हैं। अखबारों के मुखपृष्ठों पर ऐसी कई खबरें पढ़ने को मिलती हैं जिसमें परीक्षा के परिणामों से खिन्न विद्यार्थी   आत्महत्या कर लेते हैं। समाज की संवेदनाएं बस अफसोस जताने से आगे नहीं बढ़ पातीं। परीक्षा के परिणामों के आते ही अंकों की अन्‍तहीन दौड़ में शामिल विद्यार्थी क्या, अभिभावक क्या शिक्षक भी सीना फुलाते नजर आते हैं। मैं सबसे पहले इस व्यवस्था को बदस्तूर जारी रखने वाले नीति-नियंताओं से, इस कुव्यवस्था में बच्चों के साथ खुद को झोंकने वाले अभिभावकों से और इस बेशरम पौधे की तरह बढ़ने वाली कुपरिपाटी को खाद-पानी देने वाले शिक्षकों से कुछ पूछना चाहता हूँ। यदि जवाब हों तो मेरी जिज्ञासा शान्‍त कीजिएगा।

·       अव्वल रहने वाले विद्यार्थियों के अलावा एक दिन की परीक्षा के लिए बना प्रश्न-पत्र ही यदि अच्छा प्रदर्शन करने का मापदण्ड है तो खराब प्रदर्शन करने वाले विद्यार्थियों की जिम्मेदारी किसकी है

?

·       पूरे साल भर की पढ़ाई का सार केवल परीक्षा परिणाम देने वाला रिपोर्टकार्ड क्‍यों है?

·       पूरी शिक्षा प्राप्त करते-करते ये जो विद्यार्थी अव्वलता का आवरण ओड़े रहते हैं, क्‍या वे जीवन की परीक्षा में सहयोग, समानता, सामाजिकता, नैतिकता, सामुदायिकता, सहभागिता, परिवार-पास-पड़ोस के प्रति संवेदनशीलता की परीक्षा में भी अव्वल रहते हैं?

·       वे अभिभावक जिनकी चिन्‍ता पूरे साल भर अपने बच्चों को अंकों की दौड़ में सबसे आगे दौड़ाने की रहती है। जो एक ऐसी चिन्‍ता में घुले रहते हैं, जिसका कोई अंत नहीं। जो अपने बच्चों को हर रोज यह सबक घुट्टी की तरह पिलाते रहते हैं, जिन्‍हें अपनी हिदायतें एक टॉनिक या एक जरूरी कड़वी दवा की तरह लगती हैं। जिन्‍हें लगता है कि अक्सर सख्‍ती से पेश आने का उनका नजरिया चाहे उसमें चेतावनी-धमकी भी शामिल हो, बच्चे के विकास के लिए जरूरी है। जो ए ग्रेड से नीचे समझौता नहीं करना चाहते। क्या वह कभी इस ओर भी ध्यान देते होंगे कि उनके अपने रिपोर्ट कार्ड जीवन के थपेड़ों से सामना करने के लिए कितना उपयोगी रहे हैं?

·       मैं उन शिक्षकों से पूछना चाहूँगा कि उन्हें इस बार के परिणामों को देखते हुए यह तो याद है कि कितने विद्यार्थी नब्बे से अधिक नम्‍बर लाए हैं। कितने अस्सी से अधिक और कितने साठ से अधिक। वे अंकों का गुणा-भाग लगाते रहें। लेकिन क्या कभी उन्होंने इस बात का हिसाब भी लगाया कि कक्षा-कक्ष में उन्होंने इन्हीं बच्चों में से कितनों को कितनी बार डाँटा है? कितनों को अंकों को लेकर हतोत्साहित किया है। कितनों को यह कहकर उत्साह बढ़ाया है कि पढ़ाई को समझ के साथ पढ़ो न कि रटने का सहारा लेकर अच्छा स्कोर करने के लिए पढ़ो?

·       क्या अध्यापक बता सकेंगे कि जब पूरे साल भर एक ही किताब से पढ़ाया। पूरे साल भर एक ही कक्षा के विद्यार्थियों ने आपको एक जैसा सुना। परीक्षा में प्रश्न-पत्र भी एक ही था

, फिर अंकों में इतनी विविधता क्यों आ सकी? क्या आपको नहीं लगता कि आखिरकार परीक्षा तो विद्यार्थी देता है आप नहीं? फिर सफलता का सौ फीसद आपकी झोली में क्यों? यदि ऐसा है तो जिन्हें यह व्यवस्था असफल करार देती है उनकी असफलता के लिए आप कितने शर्मिन्दा है? कितनी बार शर्मिन्दा हुए हैं?

·       शिक्षकों का परिणामों पर मिठाई खाने के लिए मुँह जरूर खुलना चाहिए। लेकिन क्या औसत स्कोर करने वालों की खुशी में भी वे कभी शामिल हुए हैं। प्रातःकालीन सभा में कभी कथित फेल करार दिए गए विद्यार्थियों से यह कहने की ईमानदार कोशिश की है कि तुम्हें जिस स्थान पर पहुँचाना था, नहीं पहुँचा सका, इसके लिए मुझे माफी माँगनी है। नहीं न?

·       कोई भी शिक्षक जिसने साल भर पढ़ाया या नहीं पढ़ाया। उन बच्चों के परिणामों पर कैसे खुश हो सकता है, जिसका प्रश्न पत्र उसने नहीं बनाया? जिनकी उत्तरपुस्तिकाएँ उसने नहीं जाँची? फिर उन बच्चों ने किन परिस्थितियों में परीक्षाएँ दीं। अपने विद्यालय में परीक्षा दी या किसी अन्यत्र विद्यालय में परीक्षा दी है? क्या परीक्षा कक्ष में मैत्रीपूर्ण माहौल रहा? नकलरहित भी और नकलसहित भी?

·       शिक्षाविद् तो यहाँ तक कहते हैं कि कोई भी शिक्षक किसी भी विद्यार्थी को पढ़ा नहीं सकता। विद्यार्थी स्वयं सीखते हैं। स्वयं समझते हैं। अपनी समझ से वह आगे बढ़ रहे होते हैं। यदि शिक्षक ही कक्षा-कक्ष में चालीस बच्चों को पढ़ाते हैं तो वे चालीस के चालीस बच्चे हल भी एक समान करते। विषयवार विसंगतियों पर कुतर्क से बचते हुए यह भी कहा जा सकता है कि गणित में जब नियम-सूत्र लगाना समझा दिया गया तो कैसे कोई विद्यार्थी हल आधा-अधूरा-गलत छोड़ सकता है? यह विद्यार्थी की असफलता है या शिक्षक की?

·       क्या साल भर पाँच-छह विषयों में ही विद्यार्थी पारंगत हुए? क्या इससे इतर विद्यालय में विद्यार्थियों ने कुछ नहीं समझा-जाना और माना? रटना सीखना नहीं होता। रटकर पढ़े या उतारे गए सवालों की उलटी उत्तरपुस्तिका में कर देना और नब्बे फीसद अंक लाना वाकई सही मूल्यांकन है? क्या यह पाँच-छह विषय विद्यार्थियों के जीवन का आधार है? क्या इनमें अव्वल रहने से यही विद्यार्थी एक अच्छे नागरिक बनेंगे। एक अच्छा इंसान बनेंगे? जो कमतर रहे वे यह सब नहीं बन सकेंगे?

·       अभिभावकों से पूछना चाहता हूँ कि साल में परीक्षा परिणाम के दिन बच्चों के अंकों का कार्ड देखकर जो अपार खुशी आपको होती है, इससे बढ़कर हजारों खुशियाँ आपको आपका बच्चा हर रोज दे सकता है। देता है। बस ध्यान देना होगा। क्या आप कभी इस बात पर खुश हुए कि आज उसने अपना टिफिन शेयर किया? क्या आप इस बात पर खुश हुए कि उसे घर आते या स्कूल जाते समय देर इसलिए हुई क्योंकि वह घटित किसी घटना का सहयोगी बना और उसने वहाँ हाथ बँटाना जरूरी समझा? क्या आप इस बात पर कभी खुश हुए कि आपका बच्चा सामुदायिक कामों में समय देता है?

·       मैं अभिभावकों से यह भी पूछना चाहता हूँ साल-दर-साल अव्वल आता हुआ आपका बच्चा कॅरियर में भी अव्वल आएगा? क्या वह अव्वल पुत्र या पुत्री रहेगा? क्या वह अव्वल पति या पत्‍नी साबित होगा या अव्वल माँ या पिता? हर जगह अव्वल रहने का भाव सम्‍भव नहीं। सब दौड़ेंगे तो सब अव्वल नहीं हो सकते। लेकिन अव्वल रहने वाला भी तभी अव्वल रहा जब दौड़ने वालों में विविधता थी। सभी सौ की गति से दौड़ेंगे तो क्‍या आंकलन हो सकेगा?

·       विविधता प्रकृति का नियम है। शिक्षक को भी समझना होगा कि कक्षा में विविधता है तभी पढ़ाने का आनन्‍द है। चालीस विद्यार्थी यदि एक समान सुनेंगे,बोलेंगे,समझेंगे,जानेंगेतो रोचक कक्षा-कक्ष साबुन का कारखाना बन जाएगी। क्या वे कक्षा-कक्ष को कारखाना समझते हैं? एक जैसा उत्पाद? एक जैसा आकार। एक जैसे अंक?

·       क्या आप सभी को नहीं लगता कि परीक्षा स्मरण पर आधारित नहीं होनी चाहिए। दक्षता पर आधारित होनी चाहिए। अनुप्रयोग पर आधारित होनी चाहिए। कौशलों पर आधारित होनी चाहिए। फिर इस परीक्षा को समझने वाला वही विद्यालय नहीं होना चाहिए, जहाँ विद्यार्थी पढ़ता है। वही शिक्षक नहीं होना चाहिए, जो उन्हें पढ़ाता है। परीक्षा का आंकलन एक प्रश्नपत्र से ही क्यों?

·       मैं यह जानना चाहता हूँ कि अमूमन पाँच-छह विषयों को पढ़ाने के लिए भी  अलग-अलग विशेषज्ञ शिक्षक होते हैं। एक विद्यार्थी जो हर रोज कक्षा-कक्ष में अलग-अलग विषयों का अध्ययन अलग-अलग शिक्षकों की मदद से करता है तो भला उस एक अकेले विद्यार्थी से उन पाँच छह विषयों में ए ग्रेड की विशेषज्ञता का स्कोर करने की अपेक्षा क्यों?

·       साल-दर-साल हजारों विद्यार्थी हैं जो मैरिट पर कभी नहीं आए। औसत विद्यार्थी   रहे, लेकिन आज जीवन की परीक्षाओं में वे अव्वल हैं। वे इस समाज की कई व्यवस्थाओं में आदर्श हैं। वहीं दूसरी और मैरिट पर अव्वल रहे विद्यार्थी  , अखबारनवीसों द्वारा एक दिन हीरो बना दिए जाने पर वह जीवन की आपा-धापी में खो गए हैं। उनकी परीक्षा की अव्वलता उन्हें किस हाशिए पर ले गई, कौन जानता है? क्या ऐसे विद्यार्थियों के उदाहरण आपके पास हैं?

·       मुझे तो लगता है कि हम विद्यार्थियों को जो श्रेणियों में बाँटते हैं, यही गड़बड़ है। विद्यार्थी भी हमें बाँटते हैं। बच्चे अभिभावकों को भी अपने खाके की श्रेणियों में बाँटते हैं। क्या आपने अपनी श्रेणी का भी पता किया है? कभी जानने की कोशिश की है कि विद्यार्थियों की नजर में आपकी क्या श्रेणी है? क्या आपने जानने की कोशिश की है कि एक पति के रूप में, एक पत्नी के रूप में, एक पिता के रूप में आपका क्या स्कोर है? एक कार्मिक के तौर पर आपकी क्या श्रेणी है? हम बेहतर करने और कराने पर जोर दें। अगड़ा-पिछड़ा क्या होता है? आखिर क्यों? क्यों हम इस तरह का विभाजन करते हैं? क्या समाज में वर्ग विभाजनों का टोटा है?

·       यह शत-प्रतिशत क्या होता है? क्या शत-प्रतिशत सूरज आपको धूप पहुँचाता है? क्या शत-प्रतिशत बारिश होती है? क्या बोए गए बीज शत-प्रतिशत उगते हैं? माना कि प्रकृति से सब कुछ साभार लेकर जीवन का आदर्श नहीं बनाया जा सकता लेकिन बहुत कुछ प्रकृति से सीखा जा सकता है। एक वृक्ष में सारे फल भी एक साथ नहीं पकते। एक जैसा आकार नहीं लेते। एक ही परिवार में विविधता और प्रदर्शन देखा जा सकता है। फिर परिणामों को लेकर बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों जो जीवन भर उसे कुछ ऐसी यादें दे जाता है, जिन्हें वह चाहकर भी नहीं भूल सकते?

·       क्या प्रिंसिपल और क्या अध्यापक। क्या अभिभावक और फिर विद्यार्थी भी क्यों पीछे रहेंगे? परिणाम आने के बाद फिर से हिदायत-दर-हिदायत। फिर से जुट जाने की नसीहतें। मस्ती कम। खेलना कम। ट्यूशन पर फोकस। पढ़ाई पर जोर। सैर-सपाटा कम। सोना कम, जल्दी उठना ज़्यादा। यह सब क्या है?

·       विद्यार्थियों को पास होने पर सीना चौड़ा करके चलना सिखाया जा रहा है। फेल होने वाले और कम अंक लाने वाले मातम के अंधेरे में कम से कम दस दिन घर के भीतर घुसे रहें। अध्यापकों का स्वर देखिए। वह हिसाब लगा रहे हैं। अपने चेलों-चेलियों के प्रदर्शन पर अपनी पीठ ठोंक रहे हैं। अभिभावक पास-पड़ोस में पता करते फिर रहे हैं कि किसके बच्चे के किस विषय में कम अंक हैं? किसके ज्यादा हैं? प्रिंसिपल अपने स्कूल का प्रदर्शन पड़ोस के प्रदर्शन से जोड़ रहा है। जिला दूसरे जिले से। बोर्ड दूसरे बोर्ड से। विभाग सरकार को बता रहा है कि गत वर्ष से रिजल्ट और बेहतर बन पड़ा है। मानों यह हाईस्कूल और इंटर पास बच्चे आने वाले समय में राज्य की दशा और दिशा ठीक करने वालें हों। यह सब क्या है?

·       पुरस्कार और सम्मान देने वाली संस्थाएँ अव्वल आने वाले बच्चों को मैडल और ट्राफी देंगी। स्‍कॉलरशिप देंगी। क्या उन बच्चों के बारे में भी कुछ संस्थाएँ हैं जो रह गए। कथित अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए? उनके लिए भी स्‍कॉलरशिप हैं, जिन बच्चों को रोज की पढ़ाई तक मयस्सर नहीं?

·       मैं साल में परीक्षा परिणाम के दिन प्रफुल्लित होने वाले शिक्षकों,अभिभावकों और प्रधानाचार्यो से पूछना चाहता हूँ कि क्या वह साल के अन्य दिनों में भी इस तरह की खुशी का इजहार करते हैं? वैसे इस एक दिन वह जिस बनावटी खुशी और जिसका श्रेय खुद लेने की खुशफहमी पालते हैं, वह उनकी है ही नहीं। यह सब वह मकड़जाल है जिसमें पूरे तंत्र को उलझाकर एक हौवा बनाया हुआ है। एक ऐसी कुव्यवस्था का इंतजाम है कि बढ़ते बच्चे अधिकाधिक सवाल न करें। एक स्वतंत्र वृक्ष की तरह न फूलें-फलें। क्या आपको नहीं लगता कि आप भी उतना पूर्ण शिक्षा करते-करते नहीं सीखे-समझे-जाने और माने जितना पूर्ण शिक्षा करने के बाद जाने हैं। फिर? किस खुशफहमी में हैं आप? आप चाहे शिक्षक हों या अभिभावक? आपको जानना चाहिए और सम्‍भवतः आप जानते भी होंगे कि किसी भी विद्यार्थी का प्रदर्शन आपका मोहताज है ही नहीं। यदि ऐसा होता तो सुविधासंपन्न अभिभावक के बच्चे हर बार उच्च स्कोर करते। यदि ऐसा होता तो शिक्षकों के अपने बच्चे जहाँ भी पढ़ रहे हैं वहाँ टॉप पर होते। यदि ऐसा होता तो शहरी,महानगरीय बच्चे ही हर बार अखबार में जगह पाते। यदि ऐसा होता तो भरपूर कथित ‘कल्याण केन्द्रों’ में परीक्षा देने वाला हर बच्चा मैरिट पर होता। ‘यदि ऐसा होता’ की सूची बहुत लम्‍बी हो सकती है। आप चाहे तो इसे बढ़ा सकते हैं।

·       शिक्षा वह है जो हमें मनुष्यता की ओर ले जाए। परीक्षा वह है जो हमें आभास कराये कि तुम यहाँ हो, तुम्हें वहाँ होना चाहिए था। यह भी कि तुम यह जान चुके हो और तुम्हें अभी यह जानना बाकी है। क्या यह परीक्षा परिणाम हमें यह अहसास कराते हैं? क्या हमारी परीक्षाएँ बच्चों को खुद से करके सीखने का अवसर देती हैं। हम कमोबेश एक उत्तर वाले हल से आगे नहीं बढ़ पाए हैं।

·       इस बार मैंने मूल्यांकन में लगभग तीन विषयों की चार से छह उत्तरपुस्तिकाओं  के अंक विभाजन पर नज़र डाली। अंक देने का नजरिया अलग-अलग। दूसरे शब्दों में, मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि टॉप पर आए विद्यार्थी की उत्तरपुस्तिका को दस जानकार शिक्षकों को मूल्यांकन के लिए दे दीजिए। यदि दस के दस अध्यापक उस टॉपर बच्चे को अंक देते समय विविधता न भर दें और यह विविधता दो-तीन अंकों की नहीं दस से बीस अंकों के अन्‍तर की भी हो सकती है? क्यों? फिर किस तरह के मूल्यांकन की आप सिफारिश करेंगे?


सम्‍भव है यहाँ तक पढ़ने की यात्रा में असहमतियों के बिन्दु ज्‍यादा होंगे। मैं तो उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ जब यह इम्तिहान की परिपाटी बन्‍द होगी। उससे पहले कम से कम दसवीं और बारहवीं के बोर्ड बन्‍द हो जाएँ। लेकिन सुनते हैं कि सरकारें तीसरी
, पाँचवीं,आठवीं के बोर्ड का भी गठन करने जा रही हैं। युवावस्था तक दो बोर्ड झेलते हुए अब तक के इतिहास में न जाने कितने प्रतिभाशाली उम्मीदों वाले बच्चे इस खतरा परीक्षाओं के आतंक से ग्रसित होकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर चुके हैं। इस ओर कोई ठोस आँकड़ा मेरे पास नहीं है। यदि दो के साथ और तीन-तीन बोर्ड की वकालत हो रही है तो इसके परिणाम भयावह ही होंगे।


सी.एन. सुब्रह्मण्यम

0 Response to "बच्चे, हम और परीक्षा परिणाम"

Post a Comment

Ads on article

Advertise in articles 1

advertising articles 2

Advertise under the article