रफ्तार के युग में मानव रिक्शा चालकों की अमानवीय स्थिति
रफ्तार के युग में मानव रिक्शा चालकों की अमानवीय स्थिति
डिजिटल क्रांति या सूचना क्रांति का सबसे प्रमुख पहलू यह है की बिना किसी भेदभाव के सूचनाओं को प्रत्येक व्यक्ति तक अल्पतम समय में पहुंचा देती है। वो खबरे किसी राज्य में सरकार के कामकाज, देश की वर्तमान स्थिति या फिर किसी रिक्शा चालक की मजबूरी की ही क्यों ना हो। डिलीवरी ब्वॉय को चाटा मरने से लेकर संसद में असंसदीय व्यवहार तक सब सूचना क्रांति के लिए एक ही बात है, उसे बस सूचनाओं की पहुंच प्रत्येक व्यक्ति तक सुनिश्चित करना होता है। और एक नकारात्मक पक्ष यह भी है की इंटरनेट में आने के बाद कुछ भी व्यक्तिगत नही रह जाता।वर्तमान में जबलपुर शहर का ऐसा ही एक वीडियो इंटरनेट में वायरल भी हो रहा है। जिसमे एक रिक्शा चालक द्वारा एक हाथ में अपने 3–4 वर्ष के निर्वस्त्र बच्चे को लेकर दूसरे हाथ से रिक्शा चलाने का एक वीडियो सामने आया है। पूरे दिन इंटरनेट में ऐसा कुछ ना कुछ, कहीं ना कहीं घटते रहने की जानकारियां बनी रहती है। पर क्या हम इन सब बातों से कुछ सीखते है? कुछ सोचते है, उन घटनाओं के बारे में? विचार करते है? या फिर इंटरनेट में स्क्रॉल करके किसी दूसरे समाचार के साथ कुछ और समय बिताकर स्वयं को सूचनाओं से परिपूर्ण मानकर सो जाते है।
जैसा की हम जानते है की मोटर, गाड़ियों से के युग से पहले रिक्शा ही एकमात्र साधन था जिस पर बैठकर लोग शहर के अंदर एक स्थान से दूसरे स्थान तक आते जाते थे। और इसकी विशेषता यह थी कि उस जमाने में ये बड़े सम्मान की बात हुआ करती थी, जब कोई व्यक्ति रिक्शा की सवारी करता था। लेकिन समय का पहिया घूमते बहुत समय नही लगता आज रिक्शा की सवारी बहुत ही कम लोग करते है। क्योंकि भागदौड़ भरी जिंदगी में यह एक बहुत समय लेने वाला साधन बन गया है, और थोड़ा ज्यादा खर्चीला भी है।पेट्रोल, डीजल और अब इलेक्ट्रिक ऑटो के युग में रिक्शा की सवारी आपको समय से बहुत पीछे छोड़ देती है। लेकिन फिर भी समाज को बदलने में ,समय के साथ ढलने में थोड़ा समय तो लगता ही है। जब तक वो उम्रदराज लोग जीवित है, जिन्होंने रिक्शा के स्वर्णकाल को देखा है, तब तक हमें ये तिपहिए रिक्शे अपने आस पास नजर आ ही जाया करेंगे। जबलपुर जैसे और भी ऐसे पुराने शहर है जिनमे आज भी रिक्शा चालक उसी व्यवसाय के साथ अपना जीवन यापन कर रहे है। और उनका जीवन किस नारकीय परिस्थितियों में कट रहा है, ये हम सबने उस निर्वस्त्र बच्चे को पकड़े रिक्शा चलाते हुए व्यक्ति को देखकर समझ में आ रहा होगा। इन सबके बावजूद खबरों की भूख के चलते सोशल मीडिया पर उपरोक्त रिक्शा चालक के कई ऐसे व्यग्तिगत और निजी जीवन का पिटारा भी खोलकर रख दिया गया है, जो उसके सम्मानजनक जीवन जीने के अधिकार के विरुद्ध है। लेकिन पाठक उसे बड़े लगाव से पढ़कर अपना मनोरंजन कर रहा है। शायद उन्हें यह नहीं पता कि,
भरे रिक्शे से कठिन होता है, खाली रिक्शा खींचना,क्योंकि तब रिक्शे पर भूख,लाचारी और बेबसी सवार होती है।
अपने आस पास यदि हम रिक्शा चालकों की स्थिति को देखते है तो पाते है कि एक व्यक्ति जो अपने पैतृक गांव से बहुत दूर रोजगार की तलाश में शहर आया था। कुछ अच्छा रोजगार ना मिल पाने की स्थिति में वह रिक्शा चालक के रूप में कार्य करने लगा। जिसमे वह किसी रिक्शा व्यापारी से रिक्शा किराए पर लेता है। पूरे दिन मेहनत करके जब उसका शरीर पसीने से भीग जाता है, तब तक उसे जो थोड़ा पैसा मिलता है, उसका बड़ा हिस्सा रिक्शे के किराए के रूप में देने के बाद जो बहुत कम बच जाता है, उससे अपना और परिवार का पेट पालता है। उसके बाद उसके पास कुछ बचता ही नहीं जिससे वो उसके आगे की सोच सके । कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य इन सब से बहुत दूर अभी भी वह सिर्फ दो समय के खाने के इंतजाम में ही अपना जीवन काट रहा है। हां त्योहारों के समय जगह –जगह पर भंडारे और भोजन की व्यवस्था में उसके त्योहार अच्छे कट जाते है, दोनो टाइम भर पेट खाना मिल ही जाता है। त्योहारों के बाद भी शाम को रोज किसी मंदिर के सामने खड़े रहने पर रात के भोजन की व्यवस्था भी कभी कभी हो ही जाती है। इसके बाद या तो किसी सड़क के किनारे झोपड़ी में ,किसी ऐसे 10*10 के कमरे में 4 से 5 व्यक्ति, जहां गंदगी का अंबार है, या अपने रिक्शे में ही वह रात बिता देता है। गर्मियों में तो जैसे तैसे रात काट ही जाती है, लेकिन असली जिद्दोजाहद से सामना कड़ाक की ठंड और बरसात में होता है। इन सबके बावजूद कोई धर्मात्मा आ जाए तो पुराने कपड़े ,चादर दे जाते है। और ये समय भी कट जाता है। लेकिन शायद जीवन यही है, और इतना ही कठिन है। अगले दिन फिर भूखे पेट वो व्यक्ति इसी आशा और आत्मविश्वास के साथ कि आज शाम के भोजन की व्यवस्था हो ही जायेगी। अपना रिक्शा लेकर किसी सड़क, गली, चौराहे में आपको खड़ा मिलता है।
हमारे संविधान में आर्टिकल 21 हमे सम्मान के साथ जीने की स्वतंत्रता और अधिकार प्रदान करता है। क्या इसी सम्मान के साथ जीवन के लिए हम आजाद हुए थे? क्या हमारी सरकारें सो रही है? जो उन्हें इस प्रकार की अमानवीय परिस्थितियों में जीवित नागरिकों के लिए सोचने और उनकी यथासंभव सहायता करने की आवश्यकता दिखाई नही देती। क्या यही वह कल्याणकारी राज्य है, जो संविधान की मूल भावना में निहित है? क्या हमने ऐसी ही पढ़ाई की है,शिक्षा प्राप्त की है, जो हमे किसी गरीब,मजदूर या मजबूर जन की सहायता के लिए बाध्य नहीं कर सकती है? समाज के या देश के संसाधनों में देश का प्रत्येक नागरिक बराबर का हकदार है। तो फिर उस रिक्शा चालक का हक कहां है? क्यों वह अपने निर्वस्त्र बच्चे को एक हाथ में लेकर दूसरे हाथ से रिक्शा चलाने पर मजबूर है। सवाल बहुत सारे है और जवाबदार जवाब देने तैयार ही नहीं है। वैसे कुछ जिम्मेदार सरकारी संस्थाओं ने संज्ञान लेते हुए उपरोक्त रिक्शा चालक को रैन बसेरा में रहने की व्यवस्था कर दी है। लेकिन ये सिर्फ एक रिक्शाचालक की नही अपितु लगभग सभी रिक्शा चालकों की समस्या है, इसके निपटान के लिए बड़े स्तरों समाधान वांछनीय है।
ऐसी परिस्थितियों से निपटने के लिए शहरों में बहुत ही कम शुल्क या निशुल्क रूप में दोनो समय भोजन की उपलब्धता कराने की आवश्यकता है। जिससे किसी को भूखा ना सोना पड़े। और कोशिश की जाए की ग्रामीण स्तर पर ही रोजगार के इतने अवसर मुहैया कराए जाए कि किसी व्यक्ति को अपना गांव अपना घर छोड़कर शहरों की ओर ना भागना पड़े। रोजगार की तलाश में गांवों से शहरों की ओर पलायन भी एक बड़ी समस्या है। जिस पर हम फिर कभी बात करेंगे। लेकिन आज के लिए सिर्फ इतना ही की हमारे आस पास ऐसा कोई भी ना हो जो भूखा सो रहा हो,ठंड से अकड़ रहा हो,या बारिश में खुले आसमान के नीचे भीग रहा हो। जब तक सरकार सर्वोदय को अपना लक्ष्य बनाकर उस अंतिम व्यक्ति तक नही पहुंच जाती तब तक हम आपको मिलकर ही उसे सहारा देना है। तभी हम अच्छे नागरिक या राष्ट्रभक्त बन पाएंगे। अंत में इतना ही की " इतना ही लो थाली में की व्यर्थ ना जाए नाली में"।
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